मंहगाई, भ्रष्टाचार और आर्थिक शोषण पर नियंत्रण और उपयुक्त आर्थिक नीतियों द्वारा दूर हो सकती हैं गरीबी!

स्वाधीनता उपरांत गरीबी भारत में एक प्रमुख चुनौती रही हैं जो कमोबेश आज भी एक प्रमुख चुनौती बनी हुई है। इसलिए आमजनता को चट्टी चौराहों पर चुनावी चर्चा के दौरान जातिवादी समीकरणों की जोड़-तोड करने के बजाय गरीबी भूखमरी और कुपोषण जैसी चुनौतीपूर्ण समस्याओं के कारण और निवारण पर बहस करना चाहिए। स्वाधीनता उपरांत केन्द्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने गरीबी जैसी समस्या से निजात पाने के लिए तमाम नीतियां बनाई परन्तु आज भी गरीबी भूखमरी और कुपोषण जैसी समस्याएं  हमारे नीति निर्माताओं के समक्ष एक गम्भीर चुनौती बनी हुई है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सच्चे सनातनी और सच्चे वेदांती थे तथा विशुद्ध आध्यात्मिक प्रवृत्ति के राजनेता थें। परन्तु उन्होंने वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण अपनाते हुए स्वीकार किया था कि-“गरीबी अभिशाप नहीं बल्कि मानव निर्मित षड्यंत्र है”। यह विचार प्रकट करते हुए महात्मा गांधी कल्याणकारी अर्थशास्त्रियों की परम्परा के प्रखर अर्थशास्त्री नजर आते हैं तथा एक जिम्मेदार और समाज के प्रति संवेदनशील राजनेता का परिचय देते हैं। भारत में गरीबी और दरिद्रता को दूर करने के लिए महात्मा गाँधी ने  अंत्योदय का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। समाज के प्रति संवेदनशील जिम्मेदार और ईमानदार बुद्धिजीवी, राजनेता और शासक कभी भी गरीबी को अभिशाप या आसमानी प्रकोप नहीं मान सकते हैं। गरीबी को अभिशाप मानना बुद्धिजीवी राजनेता और शासक-प्रशासक के लिए अपनी बौद्धिक, राजनैतिक , सामाजिक और शासकीय जिम्मेदारियों से मुंह मोडना हैं। विश्व के अधिकांश विकसित देशों ने दूरगामी और दूरदर्शितापूर्ण आर्थिक  नीतियों के माध्यम से आम जनमानस को गरीबी और गुरूबत से बाहर निकालने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है। ज्ञान विज्ञान के चमत्कार और आम जनमानस में उद्यमिता की चेतना विकसित कर आधुनिक काल में अधिकांश पश्चिमी दुनिया के देशों ने लोगों का जीवन स्तर उपर उठाने का प्रयास किया। विश्व के प्राचीन, अर्वाचीन और आधुनिक समाज के आर्थिक विकास- क्रम का ऐतिहासिक विश्लेषण किया जाए तो स्पष्टतः परिलक्षित होता हैं कि-शासक वर्ग द्वारा उत्पादकों और श्रमजीवियों का शोषण गरीबी का अनिवार्य कारण रहा हैं। राजतंत्रीय शासन व्यवस्थाओं में कुलीन वर्ग और पुरोहित वर्ग जन साधारण का मनमाना शोषण करते रहे हैं। इन राजतंत्रीय शासन व्यवस्थाओं में शासक अपने भोग-विलास शौक तथा शान-ओ-शौकत के लिए जनता पर मनमाना कर थोपते रहते थे। इसके साथ पुरोहित भी भोली-भाली जनता को अशुभ और अमंगल से भयाक्रांत कर तथा स्वर्ग-नरक का खेल दिखाकर भरपूर शोषण करते रहे हैं ।

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारों के साथ लडी गई फ्रांसीसी क्रान्ति में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता हैं कि-फ्रांस में आम जनमानस ने कुलीनो और पादरियों के शोषण से तंग आकर तीव्रता से संघर्ष किया। फ्रांसीसी क्रान्ति की तरह आम जनमानस का शोषण करने वाले शासकों से आजिज आकर रूस सहित अन्य देशो के जन साधारण वर्ग द्वारा सफल संघर्ष किया गया। इस तरह विश्व की अधिकांश शासन व्यवस्थाओं में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से व्याप्त शोषण गरीबी के लिए स्पषट रूप से उत्तरदायी कारक रहा है। इसलिये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था में सक्रिय शोषण के समस्त औजारों को भोथरा करके आम जनमानस को गरीबी से मुक्ति दिलाई जा सकती हैं। आज विश्व की अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं सामंतवादी अर्थव्यवस्था से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था  में परिवर्तित हो चुकी हैं तथा शोषण के औजार भी बदलते दौर के लिहाज़ से बदल चुके हैं। बदलते दौर के लिहाज़ से शोषण के नये औजारों को चिन्हित करना और उन्हें समाप्त करना जनतांत्रिक सरकारों की अनिवार्य जिम्मेदारी है। कुछ विश्लेषको के अनुसार भारतीय सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था अर्द्ध सामंती तथा अर्द्ध पूंजीवादी प्रवृत्ति की हैं। इसलिए भारत में गरीबी से  निजात पाने के लिए सांमती और पूंजीवादी दोंनो व्यवस्थाओं की शोषणकारी प्रवृत्तियों पर प्रहार करना होगा। 

ज्ञान विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में जब अगणित आविष्कार होने लगे तो उद्योग धंधों का विकास होने लगा। उद्योग-धंधों के विकास के फलस्वरूप बाजारवादी अर्थत्ंत्र अस्तित्व में आया। बाजारवादी अर्थत्ंत्र में कालाबाजारी मुनाफाखोरी और जमाखोरी जैसे नये तरह के शोषण के  औजारों का विकास हुआ तथा नये तरह के शोषकों का अभ्युदय हुआ। सरकार जब बाजार में अहस्तक्षेप की नीति का पालन करने लगती हैं तथा बाजार पर  सरकार का  नियंत्रण कमजोर हो जाता हैं तो जमाखोरी मुनाफाखोरी कालाबाजारी और मिलावटखोरी की प्रवृत्ति पूरी निर्लज्जता के साथ अपनी पराकाष्ठा पर होती हैं। जिसका स्वाभाविक परिणाम यह होता हैं कि-आवश्यक वस्तुएँ आम जनमानस की पहुँच से दूर होने लगती हैं तथा लोग गरीबी के दलदल में फंसते चले जाते हैं। अधिकांश विकासशील देश इन्हीं समस्याओं के कारण निर्धनता के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपने विभिन्न नाटकों और कहानियों में ग्रामीण जन-जीवन में व्याप्त  मुख्यतः तीन प्रकार के शोषण का उल्लेख किया है। 

मुंशी प्रेमचंद के अनुसार सामंतवाद, पुरोहितवाद और महाजनी व्यवस्था आम जनमानस के शोषण के सबसे सशक्त माध्यम थे। वर्तमान आधुनिक लोकतंत्र में भी चुने हुए जनप्रतिनिधियों में सामंतवादी चेतना गहरे रूप से व्याप्त है। जनता के उत्थान के लिए संचालित योजनाओं में लूट-खसोट करके निर्वाचित जनप्रतिनिधि बेशुमार दौलत के मालिक होते जा रहे हैं। इसी तरह तरह धर्म के आधुनिक ठेकेदार आस्था निष्ठा और श्रद्धा का बाजार खडा करके खूब काली कमाई कर रहे हैं। इसी तरह महाजनी व्यवस्था की प्रवृत्तियाँ आज भी बाजारवादी अर्थत्ंत्र में अपनी पराकाष्ठा पर हैं। भूमंडलीकरण उदारीकरण और निजीकरण के नारों के साथ 1991 में जिस नई अर्थव्यवस्था का आगाज किया गया वह विशुद्ध प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा पर आधारित है। जिसमें अधिकतम मुनाफा प्राप्त करने के लिए मिलावट खोरी जमाखोरी को औजार बनाया गया। जमाखोरी बाजार की शक्तियों का एक ऐसा  घिनौना षड्यंत्र है जिसके द्वारा बाजार में आवश्यक वस्तुओं के अभाव का शोर मचाया जाता हैं। इस कृत्रिम अभाव के शोर से आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगते हैं। स्वाभाविक रूप से आवश्यक वस्तुओं के क्षेत्र में बेतहाशा बढती मंहगाई निर्धन लोगों की संख्या में बढोतरी करने में सहायक है।

भारत में स्वाधीनता उपरांत कल्याणकारी अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता देते हुए मिश्रित को अपनाया गया। कल्याणकारी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संसाधनों का वितरण इस तरह से किया जाता हैं कि-अधिकतम लोगों की अधिकतम भलाई सुनिश्चित हो सके तथा सरकार आम जनमानस के पक्ष में बाजार को समय-समय पर निर्देशित और नियंत्रित करती रहे। स्वाधीनता उपरांत भारत में निर्धनता को दूर करने के लिए सुनियोजित तरीके से कोशिश की गई। भारतीय अर्थव्यवस्था का गम्भीरता से अवलोकन किया जाए तो ज्ञात होता है कि- भारत में  निर्धनो की सर्वाधिक संख्या भूमिहीन श्रमिको के रूप मे पाई जाती है। भूमिहीन श्रमिको को गरीबी रेखा से बाहर निकालने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम चलाया गया। स्वाधीनता उपरांत बनने वाली भारत की प्रथम केन्द्रीय सरकार ने एक झटके में जमींदारी रैयतवारी और महालवाडी जैसी व्यवस्थाओं को समाप्त कर दिया गया। पश्चिम बंगाल और केरल में भूमि सुधार के कार्यक्रमो द्वारा निर्धनता की समस्या को काफी हद तक दूर करने का प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त प्रख्यात गांधीवादी संत विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन के माध्यम से भूमिहीन मजदूरों को गरीबी रेखा से उपर उठाने का सार्थक प्रयास किया। इसके अतिरिक्त मानव संसाधन का समुचित विकास कर भी लोगों को गरीबी रेखा से उपर उठाया जा सकता है। केरल की सरकार ने मानव संसाधन के विकास के लिए शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में भरपूर निवेश किया। इस के प्रतिफल स्वरूप केरल विकसित राज्यो की श्रेणी में आ गया। भारत में गरीबी का एक महत्वपूर्ण कारण पराधीनता के समय ब्रिट्रिश साम्राज्य द्वारा अपनाई जानें वाली औपनिवेशिक नीतियाँ थी। इन औपनिवेशिक नीतियों के तहत अंग्रेजी सरकार ने परम्परागत भारतीय कृषि व्यवस्था और हस्तकला को बुरी तरह चौपट कर दिया था। इसलिए सत्तर के दशक में भारतीय कृषि में गतिशीलता लाने के लिए हरित क्रांति लाई गई। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के जीवन में सम्पन्नता आई । प्रकारांतर से हरित क्रांति ने पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों को गरीबी रेखा से उपर उठाया।

हरित क्रान्ति की तरह श्वेत क्रांति और नीली क्रान्ति के माध्यम से पशुपालकों और मत्स्य पालको के जीवन में सम्पन्नता आई। महाराष्ट्र में सत्तर के दशक में सुनिश्चित रोजगार कार्यक्रमों द्वारा आम जनमानस को  गरीबी रेखा से उपर उठाने का प्रयास किया गया। कालांतर में सुनिश्चित रोजगार कार्यक्रम सम्पूर्ण देश में चलाए गए । जो देश की अधिकांश आबादी को गरीबी रेखा से उपर उठाने मे सहायक सिद्ध हूए। इन कार्यक्रमों के अतिरिक्त आवश्यक खाद्य पदार्थों के क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू कर लोगों को गरीबी रेखा से उपर उठाने का प्रयास किया गया। जो तमिलनाडु जैसे राज्य में पर्याप्त रूप से सफल रहा। 

आज हम चाॅद पर कदम रख चुके हैं परन्तु आज भी हर संवेदनशील व्यक्ति के मन मस्तिष्क  को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने वाला तथ्य हैं कि- भारत में उन्नीस करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं तथा लगभग पैत्तीस करोड लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। उस दौर में जब भारत अंतराष्ट्रीय रंगमंच पर स्वयं को वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहा है यह आंकड़ा अत्यंत भयावह और भारत की एक बदरंग तस्वीर पेश कर रहा है। भारत में लगभग हर चौथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है। विश्व के अधिकांश देशों की उतनी आबादी नहीं है जितनी भारत में     गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर करने वालों की आबादी हैं। कौशल विकास कार्यक्रमों द्वारा भारतीय युवाओं में उद्यमिता की चेतना जाग्रत कर , कालाबाजारी, जमाखोरी, मिलावटखोरी और मुनाफाखोरी जैसी प्रवृत्तियों पर लगाम लगाकर तथा कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण स्थापित कर आम जनमानस को गरीबी के दलदल में फंसने से बचाया जा सकता हैं । तकनीकी एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा स्वास्थ में पर्याप्त निवेश द्वारा सुदक्ष और सक्षम मानव संसाधन का विकास करना गरीबी रेखा से उपर उठाने के लिये आवश्यक है। फलतः देश के नीति नियंताओं को दूरदर्शी तथा दूरगामी आर्थिक नीतियां बनाकर गरीबी के दुष्चक्र से भारतीय अर्थव्यवस्था को बाहर निकालना होगा । इसके साथ मंहगाई और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, कृषि आधारित लघु कुटीर उद्योगो को बढावा देकर, भूमि सुधार कानून को ईमानदारी से लागू कर और शिक्षा और स्वास्थ्य के माध्यम से मानव संसाधन में निवेश कर अधिकांश लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया जा सकता है। 

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मनोज कुमार सिंह
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।