भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम : लोक सेवक को दोषी ठहराने के लिए, रिश्वत के प्रत्यक्ष साक्ष्य का होना आवश्यक नहीं है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट : राजनैतिक अपराधियों पर सुको की लगाम

भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसीए) पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने, एक महत्वपूर्ण फैसले में, आज 15/12/22, गुरुवार को कहा है कि, “भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत एक लोक सेवक को दोषी ठहराने के लिए रिश्वत की मांग या स्वीकृति का प्रत्यक्ष प्रमाण आवश्यक नहीं है और इस तरह के तथ्य को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के माध्यम से साबित किया जा सकता है।”

“मृत्यु या अन्य कारणों से शिकायतकर्ता का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध न होने पर भी, लोक सेवक को लोक सेवक अधिनियम के तहत दोषी ठहराया जा सकता है, यदि अवैध परितोषण Gratification (रिश्वत) की मांग परिस्थितियों के आधार पर, आनुमानिक साक्ष्य के माध्यम से सिद्ध की जाती है। (रिश्वत की) मांग या उसकी स्वीकृति के संबंध में, तथ्य Facts का अनुमान, कानून की अदालत द्वारा, एक अनुमान के माध्यम से, केवल तभी लगाया जा सकता है जब, मूलभूत तथ्य Facts सिद्ध हो गए हों।”

संविधान पीठ ने कहा कि, “शिकायतकर्ता के साक्ष्य / अवैध संतुष्टि की मांग के प्रत्यक्ष या प्राथमिक साक्ष्य के अभाव में, धारा 7 और धारा 13(1)(डी) के अंतर्गत, लोक सेवक द्वारा किए गए अपराध/अपराध का निष्कर्ष निकालने की अनुमति विधिसम्मत है।  इसे अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत अन्य साक्ष्यों के आधार पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ पढ़ने पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।” 

जस्टिस अब्दुल नज़ीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामासुब्रमण्यन और बी.वी. नागरत्ना की 5-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 23 नवंबर को, इस मामले में, अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। आज पीठ की तरफ से, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को, अदालत में, सुनाया, जो इस प्रकार है। 

“आरोपी के ऊपर अपराध को साबित करने के लिए, अभियोजन पक्ष को पहले, उत्कोच/रिश्वत की मांग और बाद में, उक्त धन की स्वीकृति को, मुकदमे के तथ्य के रूप में, अदालत में सिद्ध करना होगा। इस तथ्य (रिश्वत के धनराशि की मांग और, आरोपी द्वारा, की गई, प्राप्ति को, अभियोजन, या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा, या मौखिक साक्ष्य की प्रकृति के रूप में, साबित कर सकता है। इस संबंध में, दस्तावेजी साक्ष्य, इसके अलावा, विवादित तथ्य, अर्थात् उत्कोच या रिश्वत  की मांग और स्वीकृति का प्रमाण, यदि प्रत्यक्ष, मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य का अभाव हो तो, उसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य Circumstantial evidence द्वारा भी, अदालत में, साबित किया जा सकता है।”

इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि,

“यदि शिकायतकर्ता पक्षद्रोही Hostile हो जाता है या, उसकी मृत्यु हो जाती है या, परीक्षण Trial के दौरान अपने साक्ष्य देने में असमर्थ हो जाता है, तो, रिश्वत की मांग को, किसी अन्य गवाह के साक्ष्य के माध्यम से, अभियोजन साबित कर सकता है और अभियोजन, इस पर, फिर से मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य, अदालत में, प्रस्तुत कर सकता है। अभियोजन पक्ष, साक्ष्य या परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा, मुकदमे को, अदालत में, साबित कर सकता है। इससे मुकदमा कमज़ोर नहीं होता है और न ही, इसका असर, लोक सेवक के बरी होने के आदेश के रूप में होता है।”

फैसले के अन्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं:

० भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13(1)(डी)(i) और (ii) के तहत आरोपी लोक सेवक के अपराध को स्थापित करने के लिए एक लोक सेवक द्वारा रिश्वत/अवैध परितोष Gratification की मांग और उसकी स्वीकृति का सबूत, मुकदमे में एक अनिवार्य शर्त है। 

० मामले में तथ्य facts को साबित करने के लिए, अर्थात् लोक सेवक द्वारा अवैध परितोषण की मांग और स्वीकृति,को अदालत में सिद्ध करने के लिए, निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखना होगा:

(i) यदि रिश्वत देने वाले द्वारा, लोक सेवक की ओर से कोई मांग किए बिना भुगतान करने का प्रस्ताव है, और बाद में वह प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है और अवैध उत्कोच प्राप्त कर लेता है, तो यह धारा 7 के अनुसार स्वीकृति (रिश्वत स्वीकार कर लेने) का मामला बन जाता है। ऐसे मामले में लोक सेवक द्वारा, रिश्वत की पूर्व मांग के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। लोकसेवक ने कोई रिश्वत की कोई मांग नही की पर उसने काम हो जाने के बाद भी यदि उत्कोच/रिश्वत स्वीकार कर लेता है तो वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धाराओं के अंतर्गत दोषी करार दिया जायेगा। 

(ii) दूसरी ओर, यदि लोक सेवक, रिश्वत की मांग करता है और रिश्वत, उसे दी जाती है या निविदा में मांगा गया परितोषण gratification, जो बदले में लोक सेवक द्वारा प्राप्त किया जाता है, तो यह, रिश्वत स्वीकार कर लिए जाने का मामला बनता है। रिश्वत प्राप्त करने के मामले में, रिश्वत (काम से पहले की) मांग लोक सेवक की तरफ से उत्पन्न होती है। यह अधिनियम की धारा 13(1)(डी)(i) और (ii) के तहत एक अपराध है।

दोनों ही मामलों में, रिश्वत देने वाले की पेशकश और लोक सेवक द्वारा मांग को क्रमशः अभियोजन पक्ष द्वारा एक तथ्य के रूप में साबित किया जाना चाहिए।  दूसरे शब्दों में, बिना किसी फैक्ट या आधार के रिश्वत की स्वीकृति या प्राप्ति लोकसेवक को, धारा 7 या धारा 13(1)(डी)(i) और (ii) के अंतर्गत, अपराध नहीं बनाती है। रिश्वत की मांग या स्वीकृति के संबंध में तथ्य का अनुमान कानून की अदालत द्वारा एक अनुमान के माध्यम से केवल तभी लगाया जा सकता है जब, मूलभूत तथ्य साबित हो गए हों।  

इसी मामले में, जयराज और पी. सत्यनारायण मूर्ति के मामले में, सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की पीठ के फैसले और एम.नरसिंह राव के मामले में 3 न्यायाधीशों की खंडपीठ के फैसले में धारा 7 और अन्य धारा के तहत अपराधों के लिए सजा को बनाए रखने के लिए आवश्यक सबूत की प्रकृति और गुणवत्ता के साथ, इस संविधान पीठ के इस फैसले का कोई विरोध नहीं है। यह फैसला, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा, 13(1)(डी)(i) और (ii) की पुनः व्याख्या करता है। 

2019 में, एक खंडपीठ द्वारा एक बड़ी पीठ को एक मामला संदर्भित किया गया था कि, रिश्वत की मांग को साबित करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण या प्राथमिक साक्ष्य का आग्रह कई निर्णयों के दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं हो सकता है, जिसमें शिकायतकर्ता के प्राथमिक साक्ष्य की अनुपस्थिति के बावजूद  , शीर्ष अदालत ने अन्य सबूतों पर भरोसा करते हुए, और क़ानून के तहत एक अनुमान बनाकर अभियुक्त की दोषसिद्धि को बरकरार रखा था। बाद में, तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने, इस मुद्दे को संविधान पीठ को सौंप दिया। इसका  कारण यह था कि,

“हम ध्यान देते हैं कि इस न्यायालय की दो, तीन – न्यायाधीशों की पीठ, बी. जयराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2014) 13 एससीसी 55; और पी. सत्यनारायण मूर्ति बनाम जिला पुलिस निरीक्षक, आंध्र प्रदेश राज्य के मामलों में  और अन्य, (2015) 10 SCC 152, एम. नरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, (2001) 1 SCC 691 में इस न्यायालय के पहले के तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ के फैसले के विरोध में हैं। ऐसा इसलिए कि, आवश्यक सबूत की प्रकृति और गुणवत्ता के संबंध में  भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ पठित धारा 7 और 13(1)(डी) के तहत हुए अपराधों के लिए, दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिए जब, शिकायतकर्ता का प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध न हो। इसी विंदु पर पांच सदस्यीय पीठ ने यह व्यवस्था दी है। 

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने, धारा 7 और धारा 13 का उल्लेख किया है, जिसे मैं, अधिनियम से लेकर प्रस्तुत कर रहा हूं। 

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7

7. सरकारी कार्य के संबंध में कानूनी पारिश्रमिक के अलावा अन्य परितोषण लेने वाला लोक सेवक – जो कोई, लोक सेवक होने के नाते, या होने की उम्मीद करता है, स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है, स्वयं के लिए या किसी के लिए अन्य व्यक्ति, कोई भी संतुष्टि, कानूनी पारिश्रमिक के अलावा, किसी भी आधिकारिक कार्य को करने या करने से मना करने के लिए या अपने आधिकारिक कार्यों के अभ्यास में, किसी भी व्यक्ति के पक्ष में या विरोध करने के लिए या दिखाने के लिए मना करने के लिए एक मकसद या इनाम के रूप में केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या किसी राज्य के विधानमंडल के साथ या धारा 2 के खंड (सी) में निर्दिष्ट किसी भी स्थानीय प्राधिकरण, निगम या सरकारी कंपनी के साथ किसी भी व्यक्ति को कोई सेवा प्रदान करने या देने का प्रयास करना, या किसी लोक सेवक के साथ, चाहे उसका नाम हो या अन्यथा,कारावास से दंडनीय होगा जो छह महीने से कम नहीं होगा लेकिन जो पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा।

(स्पष्टीकरण) –

(ए) “एक लोक सेवक होने की उम्मीद”। यदि एक व्यक्ति जो कार्यालय में होने की उम्मीद नहीं करता है, दूसरों को इस विश्वास में धोखा देकर संतुष्टि प्राप्त करता है कि वह कार्यालय में आने वाला है, और वह उनकी सेवा करेगा, तो वह धोखाधड़ी का दोषी हो सकता है, लेकिन वह अपराध का दोषी नहीं है इस खंड में परिभाषित।

(बी) “संतुष्टि”। शब्द “परितोषण” आर्थिक संतुष्टि या धन के रूप में अनुमानित संतुष्टि तक ही सीमित नहीं है।

(सी) “कानूनी पारिश्रमिक”। “कानूनी पारिश्रमिक” शब्द केवल उस पारिश्रमिक तक ही सीमित नहीं है जिसे एक लोक सेवक कानूनी रूप से मांग सकता है, लेकिन इसमें वे सभी पारिश्रमिक शामिल हैं जिन्हें स्वीकार करने के लिए उसे सरकार या संगठन द्वारा अनुमति दी जाती है, जिसकी वह सेवा करता है।

(डी) “करने के लिए एक मकसद या इनाम”। एक व्यक्ति जो ऐसा करने के लिए एक मकसद या इनाम के रूप में संतुष्टि प्राप्त करता है जो वह करने का इरादा नहीं रखता है या करने की स्थिति में नहीं है, या नहीं किया है, इस अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है।

(ई) जहां एक लोक सेवक किसी व्यक्ति को गलत तरीके से विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है कि सरकार के साथ उसके प्रभाव ने उस व्यक्ति के लिए एक शीर्षक प्राप्त कर लिया है और इस प्रकार उस व्यक्ति को इस सेवा के लिए पुरस्कार के रूप में लोक सेवक, पैसा या कोई अन्य संतुष्टि देने के लिए प्रेरित करता है, लोक सेवक ने इस धारा के तहत अपराध किया है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13

13. लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार।—

(1) एक लोक सेवक को आपराधिक कदाचार का अपराध करने वाला कहा जाता है, –

(ए) यदि वह आदतन स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या स्वीकार करने का प्रयास करता है या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कानूनी पारिश्रमिक के अलावा कोई भी संतुष्टि एक मकसद या इनाम के रूप में होता है जैसा कि धारा 7 में उल्लिखित है; या

(बी) अगर वह आदतन स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है या किसी अन्य व्यक्ति के लिए, किसी भी मूल्यवान चीज को बिना किसी विचार के या किसी ऐसे व्यक्ति से अपर्याप्त होने के बारे में जानता है जिसे वह जानता है, या उसके द्वारा की जाने वाली किसी भी कार्यवाही या व्यवसाय में शामिल होने या होने की संभावना है, या उसके द्वारा या किसी लोक सेवक के आधिकारिक कार्यों के साथ कोई संबंध है, जिसके वह अधीनस्थ है, या किसी व्यक्ति से जिसे वह जानता है कि वह संबंधित व्यक्ति में रुचि रखता है या उससे संबंधित है; या

(ग) यदि वह लोक सेवक के रूप में उसे सौंपी गई या उसके नियंत्रणाधीन किसी संपत्ति का बेईमानी से या कपटपूर्वक दुरूपयोग करता है या अन्यथा अपने उपयोग के लिए परिवर्तित करता है या किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा करने देता है; या

(घ) यदि वह,—

(i) भ्रष्ट या अवैध तरीकों से, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या

(ii) लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरूपयोग करके अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या

(iii) एक लोक सेवक के रूप में पद पर रहते हुए, बिना किसी सार्वजनिक हित के किसी व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है; या

(ङ) यदि वह या उसकी ओर से कोई व्यक्ति, अपने कार्यालय की अवधि के दौरान किसी भी समय कब्जे में है या उसके कब्जे में है, जिसके लिए लोक सेवक अपने ज्ञात स्रोतों से अधिक धन संबंधी संसाधनों या संपत्ति का संतोषजनक हिसाब नहीं दे सकता है आय का। स्पष्टीकरण.—इस धारा के प्रयोजनों के लिए, “आय के ज्ञात स्रोत” का अर्थ किसी वैध स्रोत से प्राप्त आय है और ऐसी प्राप्ति किसी लोक सेवक पर तत्समय लागू किसी कानून, नियम या आदेश के प्रावधानों के अनुसार सूचित की गई है। .

(2) कोई भी लोक सेवक जो आपराधिक कदाचार करता है, कारावास से दंडनीय होगा, जिसकी अवधि एक वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जो सात वर्ष तक की हो सकती है और जुर्माने का भी उत्तरदायी होगा।

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Vijay Shanker Singh X-IPS
लेखक रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं।