आरएसएस की बिसात’ क्या कोरा मतिभ्रम नहीं है !

समय की घड़ी पीछे घुमाने लिए अब गीता का सहारा
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कल की पुण्य प्रसून वाजपेयी की वार्ता का विषय दिलचस्प था — संघ का मोदी-विहीन एनडीए ! जो संघ एकचालिकानुवर्तित्व के केंद्रीय कमांड के अपने सिद्धांत पर खुद टिका हुआ है और उसे पूरे देश के संचालन का आदर्श सिद्धांतमानता है, वह आज उसी सिद्धांत के बल पर मोदी की तरह के एक शक्तिशाली सत्ता-केंद्र के निर्माण के बाद फिर एक बार ‘संघीय ढाँचे’, अन्य दलों के क्षत्रपों के साथ सत्ता की भागीदारी के ज़रिए अपने ‘सांस्कृतिक और वैचारिक’ वर्चस्व के बारे में सोच रहा है, अर्थात् उससत्ता केंद्र को ध्वस्त करने के बारे में सोच रहा है , जो उसी की पैदाइश है !

है न यह एक दिलचस्प उलटबाँसी !

जिस एनडीए के ज़रिए भारत में शहंशाह मोदी के उदय के संघ के चिर आकांक्षित आदर्श को प्राप्त किया गया है, पुण्य प्रसून कहते हैंकि अब उसे ही ध्वस्त करके पुनः एक वैसी ही प्रक्रिया से गुजर कर संघ एक नए वर्चस्ववादी समीकरण को तैयार  करने की बिसात कीबात सोच रहा है !

क्या है, सत्ता के खेल की इस अजीब सी पहेली का राज ? हमारा पहला सवाल है कि क्या इससे आरएसएस की आत्महंता वालीविक्षिप्तता के कोई संकेत नहीं मिलते हैं ? क्या इसकी असली व्याख्या आरएसएस में पसर रहे भारी अवसाद के अलावा किसी औरचीज़ से की जा सकती है !

क्या यह एक प्रकार से वह स्थिति नहीं है जब कोई खुद में ही क़ैद हो  कर रह जाता है और उसे चारो ओर की आवाज़ें सुनाई देना बंद होजाती है ?

खुद वाजपेयी बताते हैं कि जो आरएसएस कल तक एक भरे-पूरे ‘संघ परिवार’ का मुखिया हुआ करता था, आज उस परिवार के बाक़ीसारे सदस्य, मसलन्, बीएमएस़, बीकेएस, विद्यार्थी परिषद, विहिप, आदि आदि सब मृत या मृतप्राय हो चुके हैं। यहाँ तक कि बीजेपी मेंभी एक पार्टी के रूप में कोई जान नहीं बची है । जो बचा हुआ है वह है सिर्फ एक व्यक्ति, नरेन्द्र मोदी का वर्चस्व और उसके चाणक्यकहलाने वाले गृहमंत्री अमित शाह का कर्तृत्व।

अर्थात् संघ परिवार की दशा किसी भूतहा महल की तरह हो चुकी है जिसमें आप सिर्फ़ अपनी आवाज़ की ही गूंज के अलावा और किसीकी कोई आवाज़ नहीं सुन सकते हैं ।

फ्रायड के अनुसार यही तो किसी भी चरम अवसाद में फँसे व्यक्ति का प्रमुख लक्षण हुआ करता है । वह एक प्रकार से खुद में ही क़ैद होजाता है । उसमें किसी अन्य के स्थान की कोई परिस्थिति नहीं बचती है । वह सिर्फ़ खुद से ही सारे सवाल-जवाब करने को अभिशप्तहोता है ।

और कहना न होगा, इस चरम अवसादग्रस्त दशा में व्यक्ति के दिमाग़ में सिर्फ जो एक चीज़ गूंजती रहती है, जिसके गुंफन में वह फँस साजाता है, वह है मृत्यु की प्रबल प्रेरणा (death drive)। फ्रायड के शब्दों में, ऐसी उद्विग्नता में फँस कर व्यक्ति अजीबोग़रीब कल्पनाओंमें डूबता चला जाता है । “अपने अस्तित्व को ही तुच्छ करता हुआ वह उससे खेलने लगता है ।“ यह दशा उसे अन्य की ओर ध्यान न देनेके लिए मजबूर करती है । वह एक प्रकार से अपने चारों ओर के प्रति अंधा हो जाता है ।

एक और मोदी विहीन एनडीए के गठन की कल्पना वैसी ही अजीबोग़रीब कल्पना है जो तभी संभव है जिसमें आरएसएस अपने अस्तित्वको तुच्छ मानता हुआ उससे खेल रहा है । यह दशा सिर्फ आरएसएस के लोगों के अवसाद के लक्षण को बताती है । इसका उनके जीवनके यथार्थ से कोई संबंध नहीं हो सकता है ।

पुण्य प्रसून वाजपेयी की व्याख्या में यदि सच्चाई का लेश मात्र भी है तो मानना पड़ेगा कि आरएसएस अपने अहम् के अंधकार काशिकार बन रहा है । प्रमाता का अहम् ही उसके अज्ञान के विस्तार का कारक होता है । आरएसएस के कथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ केआदर्श का स्थान अब वास्तव में उसके अहम् का आदर्श ले रहा है । अब वह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के लिए नहीं, मोदी के साथराजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में फँस रहा है । वह अपने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के मतिभ्रम के पर्दे को फाड़ कर सत्ता की आकांक्षाओं के औरभी निपट नंगे रूप में सामने आने को आकुल-व्याकुल है । पर इसमें उसका संकट या उसके राह की बाधा अब भी उसका झूठा‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का आदर्श बना हुआ है ।

अन्यथा, मोदी विहीन एनडीए के विचार से आरएसएस के लोग किसके सामने, और किस बात के लिए अपने को साबित करना चाहता है? जब आरएसएस कहता है कि वह सत्ता की दौड़ में शामिल ही नहीं है, तब वह क्यों खुद को सत्ता के एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप मेंसाबित करना चाहता है ? अपने तथाकथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ के आदर्श के लिए ही तो!

अथवा, क्या यह मान लिया जाए कि इसके पीछे शुद्ध रूप में संघ वालों का यह डर बोल रहा है कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस के साथएनडीए के पूर्व सहयोगी क्षत्रपों की घेराबंदी से मोदी बुरी तरह से पराजित हो सकते हैं , और वैसी स्थिति में आरएसएस क्षत्रपों को साधनेकी अपनी ताक़त की कल्पना कर रहा है !

अगर संघ वालों में ऐसा कोई भाव पैदा हो रहा है तो यह मोदी को किनारे रख कर खुद को फिर से आज़माने की उनकी कपोल कल्पनाके बजाय मोदी-शाह धुरी की एनडीए के घटकों को साथ न रख पाने की कमी पर उनके दुख की अभिव्यक्ति ही हो सकती है । यह मानाजा सकता है कि संघ मोदी-शाह की इस कमी के साथ खुद को भी जोड़ कर देखने के कारण दुखी है । यह उनके अंदर घर कर रहेmelancholia का परिचायक है । मोदी-शाह का अभाव नहीं, यह एक प्रकार से खुद संघ का अपना ऐसा अभाव है, जिसे आप अभावका अभाव कह सकते है । यह उसके पूर्ण खोखलेपन का हीपरिचायक है ।

दरअसल, पुण्य प्रसून की पूरी वार्ता संघ की राजनीतिक आकांक्षाओं के नग्न आख्यान पर टिकी हुई है, पर इसकी गुत्थी यह है किउनका संघ अपने को इतने नग्न रूप में राजनीति के क्षेत्र के प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने लाना नहीं चाहता है ।यही संघ के लोगों में अहम्का आदर्श (ego ideal) और आदर्श अहम् (idealego) बीच के टकराव से उत्पन्न विक्षिप्तता का कारण बन रहा है ।

आदर्श अहम् प्रमाता की अपने बारे में मान ली गई एक छवि होता है, वहीं अहम् का आदर्श उसके चित्त के प्रतीकात्मक जगत का बिंदुहोता है जो जीवन में उसका स्थान तय करता है ; जो आरएसएस को आज की राजनीति का एक खिलाड़ी बनाता है । राजनीति हीउसका आदर्श अहम् है । उसके ज़रिए वह अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को साध रहा है , या सत्ता का सुख भोगते हुए चरम भ्रष्टाचार मेंलिप्त होता जा रहा है, वह सब विषय गौण हो जाते हैं ।

पुण्य प्रसून आरएसएस की इस सच्चाई को देखने में असमर्थ होने के कारण ही उसकी ‘बिसात और शह-मात’ के रोमांचक क़िस्से गढ़रहे हैं। जानने की वास्तविक चीज सिर्फ़ इतनी है कि आरएसएस एक पूरी तरह से खोखला संगठन है । अगर उसके पास भारत के नव-निर्माण की सचमुच कोई दृष्टि होती तो मोदी का दस साल का शासन सिवाय प्रचार, विध्वंस, बिखराव और राष्ट्रीय संपत्तियों की बिक्रीतथा व्यापक जनता के दुख-दर्दों को बढ़ाने के प्रकल्पों के बजाय राष्ट्रीय निर्माण और किसानों-मज़दूरों के जीवन में ख़ुशहाली के अनेककीर्तिमान स्थापित कर सकता था ।

2024 में मोदी-शाह-आरएसएस धुरी अगर पराजित होगी तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि इनके शासन से आजिज़ आ चुकी भारत कीजनता हर क़ीमत पर इनसे मुक्ति चाहेगी । यह बात विपक्ष के दलों की रणनीतियों को भी तय करेगी । जो दल पूरी आंतरिकता से इसफ़ासिस्ट धुरी को पराजित करने का काम करेंगे, वे विजयी होंगे । और जो अपनी चालाकियों के चलते दो नौकाओं में सवारी कीकोशिश करेंगे, वे नदी में डूबते हुए मृत्यु से संघर्ष करते दिखाई देंगे ।  ‘संघ की बिसात‘ एक कोरा मतिभ्रम है ।

आरएसएस के आदर्शों का यह खोखलापन ही ऐसी सभी धारणाओं को भी कोरा मतिभ्रम साबित करता है जिसमें यह माना जाता है किमोदी हारे अथवा जीते, बीजेपी आगामी कम से कम पचीस साल तक भारत की राजनीति की एक प्रमुख शक्ति बनी रहेगी । यद्यपि यहसच है कि यह खोखलापन ही आरएसएस नामक एक समूह की पहचान का हिस्सा बन कर उसे तमाम मूर्खतापूर्ण, दुस्साहसी औरउपद्रवी कार्यों के लिए प्रेरित कर सकता है ।

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