
सिन्धी एक ऐसा समुदाय है जो देश के बंटवारे के वक़्त अपनी जमीन से पूरी तरह बेदखल हो कर भारत आया और यहां केवल मात्र अपने श्रम से अपनी जड़ें बनाई और खुद को फिर से जमाया तथा प्रतिष्ठित किया। मुल्क के बंटवारे के दौरान वे अपनी जन्मस्थली सिंध में अपना सब कुछ छोड़ कर आये। मगर अपने साथ एक भरी-पूरी सांस्कृतिक विरासत लेकर आये। सिंध और मारवाड़ का हजारों साल पुराना रिश्ता रहा है। इसीलिए सिन्धी अपने घरों से बेदखल होकर भारत के अन्य हिस्सों के साथ राजस्थान में आकर सहज ही बस गए। रियासतों से मिल कर बने आधुनिक राजस्थान के निर्माण में इस समुदाय के लोगों ने भी वैसे ही अपना पसीना बहा कर अपना योगदान दिया है जैसा यहां के अन्य वासियों ने दिया है। विस्थापित होकर आये सिंधियों ने अपने छोटे-छोटे श्रम से अपना गुज़ारा शुरू किया और बड़े बने। उन्होंने कारोबार में ही अपना वर्चस्व नहीं बनाया बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, जिनमें कला, संगीत और साहित्य भी शामिल है, अपनी उपस्थिति दर्ज की है। लेकिन कैसी विडंबना है कि आज यह समुदाय शासन से अपने को उपेक्षित महसूस कर रहा है। किसी भी संस्कृति के बनने और उसे परवान चढ़ने में उसकी भाषा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सिंधियों की भी अपनी भाषा है और उसमें उनका समृद्ध साहित्य है। चालीस साल पहले राज्य सरकार ने इस समुदाय की भाषा को बचाए रखने और उसके साहित्य को बढ़ावा देने के लिए सिन्धी अकादमी की स्थापना की थी। आज वह अकादमी निष्क्रिय पड़ी है।
इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों की चिंता करते हुए सरकार ने पिछले दिनों अकादमियों के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्य धड़ाधड़ नियुक्त किये हैं। सबको खुश किया गया है मगर सिन्धी अकादमी पर अब भी सरकारी अधिकारी प्रशासक बिठाया रखा गया है। इस भाषा के साहित्यकार पूछ रहे हैं कि सरकार की इस सौतेली नीति का क्या सबब है?
हालांकि अकादमियों को सशक्त करने और उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए सक्षम बनाने में सत्ता चला रहे आज के नेताओं में कोई रुचि नहीं होती। कोई दिलचस्पी होती भी है तो वह अपने मरजीदानों को उपकृत करने तक सीमित रहती है। इसीलिए अकादमियों के गठन की याद शासन को चुनावी वर्ष के आस-पास ही आती है। सिन्धी अकादमी आठ फरवरी 2019 से प्रशासक के अधीन चल रही है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता हैं। 2019 से अब तक जो भी इसके प्रशासक रहे हैं उनका सिन्धी से दूर का भी कोई वास्ता नहीं रहा है। इससे इस भाषा और साहित्य से जुड़े लोगों की पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। और यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता में बैठे जन नेताओं की सिन्धी भाषा, साहित्य, कला एवं संस्कृति के विकास और उसके संवर्द्धन के लिये कितनी रुचि है। इस अकादमी की स्थापना 1978 में सिन्धी भाषा, साहित्य, कला एवं संस्कृति के विकास एवं संवर्द्धन के लिये एक स्वायत्त शासी संस्था के रूप में की गई थी। अकादमी की वेबसाइट पर कहा गया है कि अकादमी की स्थापना का मुख्य उद्देश्य “विलुप्त हो रही सिन्धी भाषा, कला, साहित्य एवं संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार करना है।” इसका मतलब यह हुआ कि विधान के अनुसार इस अकादमी का संचालन नहीं करना विलुप्त हो रही इस विरासत को बचाने के प्रति सरकार की उदासीनता है। इसके विधान के प्रावधानों में अकादमी का संचालन राज्य सरकार द्वारा मनोनीत अध्यक्ष, सदस्यों एवं सहवरित सदस्यों की एक साधारण सभा द्वारा किया जाने की व्यवस्था है। मगर जहां अन्य सभी अकादमियां गठित करके सरकार ने वाह-वाही लूटी है और देश में पहली बार एक नई ‘बाल साहित्य अकादमी’ का भी गठन किया है वहीं राज्य की एकमात्र सिंधी भाषा अकादमी का गठन नहीं किये जाने पर सिन्धी समुदाय में खेदयुक्त उदासी हो व्याप्त है। यह किसी को बताने की जरूरत नहीं कि कि सिंधी साहित्य में खूब काम हुआ है और आज भी हो रहा है। इसमें यदि शासन का सहारा मिल जाए तो यह और अधिक समृद्ध हो सकता है जिसकी आकांक्षा रखते हए राज्य का सिन्धी समुदाय सरकार की तरफ देख रहा है। प्रशासक की जगह इस अकादमी के विधिक तरीके से गठन करने की मांग करते हुए मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को अनेक ज्ञापन राज्य के कई शहरों से भेजे गये हैं। साहित्यकारों ने भी इस बारे में सरकार में बैठे लोगों को चिट्ठियां लिख-लिख कर कईं बार ध्यान खींचा है। सिन्धी के साहित्यकार और समाज के प्रबुद्ध लोग अब सार्वजनिक रूप से दुख और रोष जता रहे हैं कि इस मुद्दे पर किसी भी स्तर पर उनकी कोई नहीं सुन रहा है। मात्र आश्वासन दिए गये हैं, और वे पूरे नहीं किये गए हैं। उनका कहना है कि एक तरफ अन्य अकादमियां सक्रिय की जा चुकी है मगर सिन्धी अकादमी की कोई सुध नहीं ली जा रही है। उदयपुर स्थित हिन्दी साहित्य अकादमी में तो गठन के पहले के तीन बकाया पुरस्कार, सम्मान देने की व्यवस्था तक को सरकार ने मंजूरी दे दी है। ऐसे में सिंधी साहित्यकारों के प्रति यह उपेक्षा किसी को समझ में नहीं आ रही है। एक तो अकादमी में अध्यक्ष नहीं फिर सचिव भी सिंधी भाषी नहीं जिस कारण अकादमी के बजट से सिर्फ खानापूर्ति की जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सिन्धी समुदाय को ऐसे में यह लगने लगे कि इसके पीछे कोई सिंधी भाषा विरोधी निहित स्वार्थ की भावना काम कर रही है तो क्या आश्चर्य है। वरना क्या पूरे प्रदेश में एक भी सिंधी भाषी योग्य व्यक्ति उपलब्ध नहीं जो इस संस्था के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया जा सके? सिन्धी समुदाय को भी अपनी भाषा और साहित्य को बचाने और उसे बढ़ाने के संवैधानिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह सरोकार सिर्फ सिंधी भाषियों की भावना का ही नहीं बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए है जो भेदभाव,अन्याय तथा जनतांत्रिक मूल्यों में यकीन रखता है। इसलिए सिंधी भाषी ही नहीं हिंदी और राजस्थानी भाषा और साहित्यकार से सरोकार रखने वाले प्रबुद्धजनों की भी यह वेदना और सरोकार होना चाहिए, और सबको मिल कर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि सिन्धी अकादमी को वैसे साकार किया जाए जैसी उसके विधान में दर्शाया गया है। नये बजट में भी सिन्धी अकादमी के साथ भेद भाव का अंदाज ही सामने आता है जब हम पाते हैं कि उसमें इस अकादमी के लिए केवल 55 लाख रुपयों का बजट रखा गया है जो उसके कर्मचारियों के वेतन में ही खप जाने वाला है और उसके विधिक प्रावधानों के अनुरूप काम करने के लिए कुछ भी नहीं बचने वाला है।
इस अकादमी के काम इसके विधिक प्रारूप में ही लिखे हुए हैं और स्वाभाविक ही पूछा जा सकता है कि जिन उदात्त महत्वाकांक्षाओं के साथ इसका गठन किया गया था क्या वे इस सरकार की नज़र में गौण हो गए हैं? इसके संविधान में सिन्धी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अध्ययन एवं अनुसंधान को प्रोत्साहन और बढावा देने के अलावा राज्य में स्थित सिन्धी संस्थाओं/संगठनों के कार्यो में समन्वय एवं सहयोग स्थापित कराने का काम बताया गया है। साथ ही समाज में प्रतिष्ठित पुरूष और महिलाओं को पत्रों के माध्यम से साहित्य के क्षेत्र से जुडी संस्थाओं आदि को प्रोत्साहन एवं सहयोग प्रदान करना और ऐसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना करना भी इसका काम है। इसके अलावा राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सिन्धी भाषी विद्यालयों द्वारा आयोजित साहित्यिक गोष्ठियां, सम्मेलनों के विचार धाराओं का आदान-प्रदान करने की प्रक्रिया को बढावा एवं प्रोत्साहन देना, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, यहां तक कि पुस्तकों और शोध पत्रों को सिन्धी भाषा में छपवाना, संबंधित सिन्धी संगठनों के लिये लाइब्रेरी व रीडिंग रूम की स्थापना करना व लाइब्रेरियों, विद्यालयों व सार्वजनिक वाचनालायों को पुस्तकें व मैगजीनें उपलब्ध कराना इस अकादमी के काम बताए गए हैं। किन्तु प्रशासक व्यवस्था में सभी काम बरसों से ठप्प पड़े हैं। राजस्थान सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1978 के तहत सिन्धी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाओं को मान्यता देना तथा जो सिन्धी भाषा, साहित्य व कला संस्कृति के विकास के लिये कार्य करें उन्हें आर्थिक सहायता देना भी इस अकादमी को विधिक अनुदेश है। ये सब अनुदेश महत्वहीन और बेकार हो जाते हैं जब अकादमी का उसके संविधान सम्मत गठन ही न हो। ऐसे में सिन्धी किताबों, प्रदर्शनियों, मुशायरों और साहित्यिक कार्यक्रमों के माध्यम से देश में सांस्कृतिक और साहित्यिक सम्पर्क स्थापित करने की तो सोची ही नहीं जा सकती। इस अकादमी के संविधान में यह भी निर्देश हैं कि वह योग्य और अनुभवी लेखकों, कवियों और बुद्धिजीवियों को स्कॉलरशिप, फैलोशिप तथा पुरस्कार आदि प्रदान करेगी, सिन्धी भाषा के लेखकों और कवियों को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिये मान्यता प्रदान करेगी तथा उनके साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन के लिये धन उपलब्ध करवाएगी। इसके अलावा व्याख्यान, सेमीनार, सम्मेलनों तथा सर्वेक्षणों के आयोजनों के माध्यम से सिन्धी भाषा और साहित्य का उत्थान करने का भी इसके विधान में जिक्र है। मगर यह सब बातें हैं बातों का क्या वाली बात हो रही है। लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपनी निर्वाचित सरकार से जवाब मांगे। और यह जवाब आज सिन्धी समुदाय के साहित्यकार मांग रहे हैं। सरकार मौन रह कर इस प्रश्न से अपना पल्ला नहीं झाड सकती। यह समूचे सिन्धी समुदाय संवैधानिक अधिकार का हनन और उनका अपमान है।
