सुब्रोतो चटर्जी : प्रधानमंत्री मोदी के उच्च स्तरीय बैठक में इस बात पर चिंता जताई गई है कि भारत में भी श्रीलंका जैसी स्थिति आ सकती है । इसे रोकने के लिए यह सुझाव दिया गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों को लोकलुभावन योजनाओं पर विराम लगा देना चाहिए ।
इस सुझाव के आलोक में कुछ सवाल मन में हैं, जिनका निराकरण ज़रूरी है ।
पहला सवाल है कि ये लोकलुभावन योजनाएँ क्या क्या हैं और उनपर कितना खर्च होता है ।
उदाहरण के तौर पर ८० करोड़ लोगों के लिए मोदी झोला पर कितना खर्च आता है । पिछले २ सालों में इस पर क़रीब ढाई लाख करोड़ का बोझ सरकारी ख़ज़ाने पर पड़ा है । इस दरम्यान केंद्र सरकार ने सिर्फ़ पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स और सेस के ज़रिए सरकार ने आठ लाख करोड़ कमाए हैं ।
इस दौरान कॉरपोरेट टैक्स में रियायत के चलते केंद्र सरकार को २ लाख ४२ हज़ार का नुक़सान हुआ है । ये कॉरपोरेट टैक्स को २२% से १५% करने के बाद हुआ है । कॉरपोरेट टैक्स को ३०% से घटाकर २२% करने पर जो राजस्व का घाटा हुआ है उसकी बात अलग है ।
इन दो सालों के दरम्यान क़रीब ६ लाख करोड़ रुपये पूँजीपतियों का ऋण माफ़ किया गया ।
इसके फलस्वरूप ६ बैंक दिवालिया हो कर बिकने के कगार पर आ गए ।
इन दो सालों के दरम्यान भारत सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से डिवीडेंड प्रॉफिट के नाम पर क़रीब २ लाख ७६ हज़ार करोड़ ठग लिए, जिसका उपयोग डूबते बैंकों को बचाने के लिए किया जा सकता था ।
इन दो सालों के दरम्यान जीवन बीमा निगम से जबरन IDBI बैंक में क़रीब ३४ हज़ार करोड़ रुपये डलवाया गया, और जीवन बीमा निगम के १.३४% शेयर को बेचने के लिए क़ानून बनाया गया ।
इन दो सालों के दरम्यान सरकारी या देश की संपत्ति को बेईमान धंधेबाज़ों के हाथों बेच कर सरकार ने क़रीब ४२ हज़ार करोड़ रुपये जुटाए, जो कि घोषित लक्ष्य का आधा भी नहीं है ।
क्रोनी पूँजीवादी व्यवस्था की कमीनोलोजी को समझने के लिए इतना जानना काफ़ी है ।
अब इस समस्या के दूसरे पक्ष पर आते हैं ।
सवाल ये है कि किन परिस्थितियों में यह स्थिति बनी कि देश के ८० करोड़ लोग सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री के कार्यकाल में भिखारी बन गए कि वे आज मोदी झोला पर निर्भर हो गए ।
इसका कारण नोटबंदी में छुपा है । मोदी के दृष्टिकोण से नोटबंदी इस मायने में सफल रही कि सारा पैसा भाजपा के पास आ गया और विपक्षी दलों के सामने दिवालिया होने की स्थिति आ गई । भाजपा इस पैसे का इस्तेमाल चुनाव जीतने और विधायक ख़रीदने में खर्च करती रही । रही सही कसर इलेक्टोरल बॉंड और प्रधानमंत्री केयर फंड ने पूरी कर दी ।
देश की अर्थव्यवस्था के मद्देनज़र नोटबंदी ने MSME और असंगठित क्षेत्र को पूरी तरह से तबाह कर दिया । एक झटके में देश की २५% जनता ग़रीबी रेखा के नीचे चली गई । लॉकडाउन कोढ़ में खाज साबित हुआ । ताली थाली के ज़रिए किये गये गधगणना की अपार सफलता से प्रफुल्लित हो कर भारत के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री ने चार घंटे की नोटिस पर भारत बंद का आह्वान किया । ऐसा करते हुए वे भारत के प्रधानमंत्री कम और कोई विपक्ष के नेता दिख रहे थे ।
लॉकडाउन ने फिर से क़रीब २०% जनता को ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया ।
इन दो सालों के दरम्यान औद्योगिक उत्पादन नकारात्मक रहा और उपभोग न्यूनतम रहा ।प्रति इकाई बिक्री कम होने से हुए नुक़सान की भरपाई करने के लिए बाज़ार ने मूल्य वृद्धि का सहारा लिया । नतीजतन, जी एस टी कलेक्शन में तो वृद्धि हुई, लेकिन लोगों की क्रय शक्ति कम हुई और रुपये का भारी अवमूल्यन हुआ । सरकार ऋण पर निर्भर करने लगी और विदेशी क़र्ज़ बढ़ कर १४२ लाख करोड़ रुपए हो गया ।
श्रीलंका के कुल घरेलू उत्पाद का क़रीब ९३% विदेशी क़र्ज़ है और भारत का ८४% । If it is winter, can spring be far behind!
इसे उल्टा अर्थ में लें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है ।
आगे का सवाल और कठिन हो । यूक्रेन रूस युद्ध के बाद दुनिया बहुत दिनों बाद फिर से दो ध्रुवों में बंट गई है । मैंने पहले भी लिखा था कि अब जो नई विश्व व्यवस्था उभर रही है उसके एक तरफ़ रूस, चीन, भारतीय उपमहाद्वीप, पश्चिम एशिया का एक बड़ा हिस्सा और कुछ अफ्रीकी देश होंगे । दूसरी तरफ़ अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, पश्चिमी यूरोप ( आधे मन से , क्यों कि वे अपनी उर्जा की ज़रूरतों के लिए रूस पर निर्भर हैं) और सऊदी अरब जैसे देश रहेंगे ।
इस नये समीकरण में भारत के पास मौक़ा है कि वह अपने तेल और गैस के आयात का ८०% तक रूस से किफ़ायती दरों पर करे और अपनी डूबती हुई अर्थव्यवस्था को सहारा दे ।
सवाल यहाँ पर दो हैं । पहला ये कि क्या मोदी सरकार में यह इच्छाशक्ति है कि वह राष्ट्रीय स्वार्थ को सर्वोपरि रखे ? जवाब है, नहीं । घोर क्रोनी कैपिटलिज्म के समर्थक फ़ासिस्ट सरकार से अमरीका को नाराज़ करना संभव नहीं होगा । मज़ेदार बात यह है कि रूस से तेल लेने पर अमरीका भारत पर आर्थिक प्रतिबंध भी नहीं लगा सकता है, क्यों कि ऐसा करने पर उसे इसी आधार पर पश्चिमी यूरोप के देशों पर भी लगाना होगा, जो कि संभव ही नहीं है ।
दूसर परिस्थिति में, अगर मोदी सरकार देश हित में ( जो कि असंभव है) ये फ़ैसला लेती भी है तो सस्ते तेल के आयात का लाभ जनता तक पहुँचने नहीं देगी । कारण ये है कि इस सरकार की दक्षता बर्बाद करने की है, बनाने की नहीं ।
हरा-म खोरी एक आदत बन जाती है और मोदी सरकार इस आदत में जी रही है । देश की चिंता करने वाली सरकार न नोटबंदी करती है और न तालाबंदी। सस्ते तेल पर टैक्स और सेस बढ़ा कर यह सरकार सिर्फ़ अपने मित्रों को बचाएगी , जनता को नहीं ।
चलते चलते, निजीकरण के पैरोकारों से एक सवाल । २०१४ से आज तक देश में कितने निजी उद्योग लगे ? महानगरों में कितने नये मॉल या शहर बने? एक भी नहीं । व्यापारी भी जानते हैं कि कब और कहाँ पैसे लगाने चाहिए ।
इसलिए २०१९ से कहता आ रहा हूँ कि अपनी ग़लत आर्थिक नीतियों के कारण मोदी सरकार तीन सालों में फेल कर जाएगी । अगर अब भी लोगों को समझ नहीं आता है तो उनका इस डूबते हुए जहाज़ पर स्वागत है ।
(यह लेख मूल रूप से सुब्रोतो चटर्जी के फ़ेसबुक वॉल पर प्रकाशित हुआ है.)