
इंडियन एक्सप्रेस में शुक्रवार, 14 अक्तूबर को पहले पन्ने पर एक दिलचस्प एंकर था। इसके शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा – चपाती नहीं पराठा, अगर आप सस्ती रोटी नहीं खा सकते हैं तो 18% जीएसटी दीजिए। यह सरकारी फैसला है और विरोध के बावजूद सुना दिया गया है। फिलहाल खबर यही है। वैसे तो जीएसटी की बुनियाद ही दोषपूर्ण है और उसपर मैं पूरी किताब, जीएसटी 100 झंझट लिख चुका हूं पर अब मामला मनमानी का ज्यादा है। इस तथ्य के बावजूद कि ऐसे कई मामले सामने पहले भी आए हैं और लगभग हर बार फैसला जनहित के खिलाफ होता है। अपवाद जीएसटी लागू होने के बाद के विधानसभा चुनावों में गोबरपट्टी में हार और फिर गुजरात विधानसभा चुनाव के समय विरोध का माहौल रहा है जब सरकार ने जीएसटी नियमों में ढील दी। बाकी पूरी मनमानी चल रही है पर अभी मेरा मुद्दा जीएसटी नहीं, इस या डबल इंजन वाली सरकारों की जनविरोधी कार्यशैली है।

कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने वालों को सरकारी संरक्षण मिल रहा है, बलात्कारियों को छोड़ दिया गया है, अपराधियों की मौज है पर बूढ़े-बुजर्ग-लाचार समाज सेवियों को परेशान किया जा रहा है, स्टेन स्वामी तो जेल में ही मर गए। यह सब खुले आम हो रहा है पर अखबारों में खबरें वैसे नहीं छप रही हैं जैसे सब हो रहा है, किया जा रहा है या इन मामलों को अंजाम दिया जा रहा है। घटना के रूप में छपना एक बात है और यह बताना कि ऐसा जान-बूझकर प्रयास करके किया गया है – में फर्क है और मीडिया अपना यह काम करता नजर नहीं आ रहा है। मैंने ऊपर इंडियन एक्सप्रेस के कल के एंकर का उदाहरण देकर बताया कि जीएसटी के मामले में एकदम मनमानी चल रही है और यह कई कारणों में एक, इसलिए भी अनुचित है कि एक जैसे आयटम पर टैक्स की अलग दरें होना – टैक्स लेने, जमा करने, बिल बनाने, हिसाब रखने के लिहाज से तो परेशानी वाला है ही दुकानदारों के लिए भी माथापच्ची वाला काम है।
ऐसी सरकार काम किसके लिए कर रही है और कौन उसे पसंद कर रहा है यह समझना मुश्किल नहीं है। अभी मैं उस विस्तार में भी नहीं जाउंगा पर कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार की नीयत जनविरोधी और सत्ता से चिपके रहने वाली है। सरकार अपने विरोधियों को चुन-चुन कर अप्रभावी बना रही है और यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। स्थिति यह बन गई है कि सरकार को विरोधियों को संरक्षण देकर बताना चाहिए कि इस मामले में कार्रवाई नहीं की जा रही है क्योंकि मामला सरकार विरोधी होने का है और कार्रवाई का मतलब यह लगाया जा सकेगा कि सरकार विरोधी से हिसाब बराबर कर रही है। अभी तो साफ दिख रहा है कि सरकार अपने विरोधियों को येन-केन प्रकारेण जेल में बंद रखना चाहती है और उनकी जमानत भी नहीं होने देती। समर्थकों के मामले में दूसरा रवैया साफ दिखाई देता है। लेकिन यह भी इतना सीधा नहीं है। और ऐसा नहीं लगता है कि सबकुछ नियंत्रण में है और जो हो रहा है वह किया जा रहा है।
कानून व्यवस्था की हालत इसका उदाहरण है और सरकार ने जिस ढंग से अपना काम करने वालों को पद का ईनाम दिया है और पार्टी के नेताओं कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की है वह भी छिपा हुआ नहीं है। मैं उसके विस्तार में भी नहीं जाउंगा क्योंकि उसपर समर्थकों को सोचना चाहिए। लेकिन हालात का पता तो इंडियन एक्सप्रेस के आज के एंकर से लगता है। शीर्षक है, “मैं भाजपा में हूं, दोनों राज्यों में हमारी सरकारें हैं … अगर मुझे न्याय नहीं मिलेगा तो किसे मिलेगा?” आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि मामला उत्तराखंड के भाजपा नेता गुरताज सिंह भुल्लर से संबंधित है। उनकी पत्नी, 32 साल की गुरप्रीत को उत्तर प्रदेश की पुलिस ने उत्तराखंड के भरतपुर स्थित उनके घर में एक छापे के दौरान मार दिया। गुरताज सिंह भुल्लर ने उत्तर प्रदेश सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं और न्याय की बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कुछ भी मिले, भले लगे कि न्याय हो गया पत्नी वापस नहीं मिल सकती है।
कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा राज में भाजपा नेता के साथ ऐसा हुआ है – तो सरकार काम किसके लिए कर रही है। बदला लेना, हिसाब चुकाना काम नहीं है। सरकार में बने रहना तो बिल्कुल भी नहीं। लेकिन जो हो रहा है वह इससे ज्यादा नहीं है और मीडिया अगर विज्ञापनों के लिए सरकार की सेवा में है तो गलत है और उनपर ऐसी कोई शर्त है तो इसका विरोध उन्हें भी करना चाहिए। पर वह सब अभी दूर की बात है। सरकार की इस कार्यशैली को समर्थक बुरा न भी मानें तो तथ्य यह है कि सरकार अपनी अक्षमता, अयोग्यता और नालायकी के साथ नोटबंदी और जीएसटी ही नहीं मंदिर बनवाने के प्रयोग का खर्च जनता से वसूल रही है। बदले में जनता को रोजगार या सुकून की जिन्दगी मिल रही होती तो भी लगता कि महंगी है पर है तो। लेकिन सुकून की जिन्दगी तो भाजपा नेताओं की नहीं है उनकी पत्नी घरों में सुरक्षित नहीं हैं। बाकी जिन्हें लिन्च कर दिया जाता है उनकी क्या बात करूं। प्रधानसेवक हैं कि ‘मन की बात’ करते हैं या फिर मौन धारण कर लेते हैं। जनता ने चुना है तो उसे यह सब भुगतना भी चाहिए लेकिन जानना चाहिए कि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी वसूली तो पूरा कर रही है अपने खर्चों या चंदों या धन जुटाने के प्रयासों में कोई कमी या छूट नहीं दे रही है।

बात इतनी ही नहीं है। सरकार की सारी फुर्ती या चुश्ती विरोधियों को थामने में लगी हुई है। आपने पढ़ा होगा कि व्हीलचेयर पर चलने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के बर्खास्त प्रोफेसर जीएन साइबाबा को 8 साल से जेल में रखा था और कल मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने गढ़चिरोली की कोर्ट में उनके खिलाफ चली ट्रायल की कार्रवाई को नल एंड वॉयड (बेअसर और बेमतलब) करार दिया है। उनके खिलाफ यूएपीए लगाया गया था पर कार्रवाई के लिए वैध मंजूरी नहीं थी। खबर यह नहीं है कि इसके बावजूद वे पांच साल जेल में रहे। खबर यह है कि महाराष्ट्र सरकार उनके खिलाफ कल ही सक्रिय हो गई और कुछ ही घंटों में सुप्रीम कोर्ट में स्टे लेने पहुंच गई। स्टे नहीं मिला तो अपील दाखिल की गई जिसपर आज सुनवाई होनी है। दूसरी ओर, आप जानते हैं कि आम आदमी को अदालत से जमानत मिलने के बावजूद जेल में आदेश की कॉपी नहीं, मूल प्रति दिखानी होती है और कई बार जमानत की शर्तें ऐसी होती हैं कि गरीब अभियुक्त उन्हें पूरा नहीं कर पाता है या शर्ते पूरी करने के लिए कुछ महीने और जेल में रहता है।
एक तरफ प्रो जीएन साइबाबा का मामला है जो आतंकवादी हों भी तो कितने सफल और सक्षम हो सकते हैं कि उन्हें लगातार पांच साल जेल में रखा गया दूसरी ओर समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट से लेकर भोपाल से सांसद बनाई गई साध्वी प्रज्ञा का मामला है जो अदातल में लंबित है या जिसे राज्य सरकारों ने ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी। एक मामले में तो उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री ने पहले ही कह दिया था कि अपील करने की जरूरत नहीं है जबकि अदालत ने इस मामले की जांच करने के एनआईए के तरीके की आलोचना की थी और कहा था कि इसमें ढेरों खामियां हैं। विस्तृत फैसले में संदिग्ध जांच, जुगाड़ू सबूत, अभियोजन की कहानी में भारी अंतर, कई वकीलों का मुकर जाना और अभियोजन द्वारा ठोस सबूत पेश करने में नाकाम रहने जैसे कारणों को अभियुक्तों के बरी होने का आधार बताया था। कहने की जरूरत नहीं है कि एक तरफ अगर दक्षिणपंथी आतंकवाद के अभियुक्त को बचा लेने का यह मामला साफ है तो दूसरी ओर प्रो जीएन साइबाबा को जबरन जेल में बंद रखने की कोशिशें छिपी हुई नहीं हैं – और यह सरकार अगर शौंचालय बनवाने के सिवा (उसके दावे भी संदिग्ध हैं) कुछ कर रही है तो वह यही है।
ऐसी सरकार को मीडिया ही नहीं देश की दूसरी एजेंसियों-संगठनों और प्रचारकों का पूरा समर्थन मिल रहा है। नोटबंदी का मामला सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए मंजूर कर लिया गया है। सरकार की तरफ से दलील दी गई कि मामला पुराना हो गया है सिर्फ अकादमिक महत्व का है। बेशक, सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाने के बाद यह बड़ा मामला बन गया है लेकिन मीडिया ने इसे हेडलाइन मैनेजमेंट का हिस्सा बना दिया। लगभग छह साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच जरूरी है तो मुख्य शीर्षक यही होना चाहिए था और बताया जाना चाहिए था कि सरकार ने क्या कहा या सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा। पर ऐसा कहने से दूसरा सवाल यही उठता कि जरूरी था तो अब क्यों या इतनी देर बाद क्यों। दूसरी ओर, मीडिया को तो “सब चंगा सी” दिखाना है। इसलिए वह बात कहीं नहीं आई, किसी शीर्षक लगाने वाले के दिमाग में नहीं। मैंने 11 अखबार देखे इनमें शाह टाइम्स का शीर्षक बताता है कि मामले में कानूनन कुछ गड़बड़ हो सकती है। दूसरे शीर्षक से ऐसा नहीं लगता है। तथ्य यही है कि विरोधियों को चुन-चुन कर बेअसर करने की रणनीति के बावजूद पी चिदंबरम की दलीलों को माना गया कि नोटबंदी सिर्फ अकादमिक चर्चा का विषय नहीं है।
