“लोकतंत्र में सत्ता किसकी होगी, कैसी होगी, ये देश का जनमत तय करता है। ” ये बड़ा मासूम सा स्टेटमेंट है। इस स्टेटमेंट के पीछे की साजिश या चालाकी या धूर्तता को समझने के लिए जनमत की सरंचना को समझना पड़ेगा।
जनमत, यानि लोगों का मत। ये मत बनता कैसे है, इसे समझना ज़रूरी है। जनमत बनता है जन को मिलने वाली सूचनाओं और पूर्व के अनुभवों के आधार पर। अब सूचना के देने लेने की मशीनरी पर जिसका भी कब्ज़ा होगा, वो जनमत को निर्मित करेगा।
सूचनाएं भी दो तरह की हैं, एक तो कहीं किसी रूप में घटित कोई घटना। इस तरह की घटनाओं की या तो सही सूचना दी जा सकती है या ग़लत या फिर मिश्रित। ग़लत और मिश्रित तो समझना आसान है लेकिन सही सूचना भी कितनी सही होती है, इस पर अमूमन विचार नहीं किया जाता। वर्तमान राजनीतिक माहौल से एक उदाहरण लेते हैं। अभी उत्तर भारत में मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं, देश भर में मुसलमानों को एक बुरी क़ौम के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इस सियासी मुहिम को भरपूर समर्थन मिला रहा है तो विरोध करने वालों की संख्या भी बहुत है। अब एक मुस्लिम व्यक्ति कोई अपराध करता है तो एक तरफ मुसलमानों के प्रति द्वेष रखने वाले सख़्त कार्यवाही की कोशिश करेंगे, तटस्थ लोग कानून सम्मत कार्यवाही की बात करेंगे तो एक वर्ग आशंका जतायेगा कि कहीं उसे फंसाया तो नहीं जा रहा है !
यहीं पर विचार करने की ज़रूरत है। ये जो तीन वर्ग है क्या मौजूद तथ्यों को एक ही तरह से देख पायेगें ? कम से कम मैं ऐसा नहीं सोचता। जब मीडिया के लोग अपने निष्पक्ष या तटस्थ होने का दावा करते हैं, तो ऐसे दावों को इसी नज़रिये से विश्लेषण करने की ज़रूरत है।
निष्पक्ष होना क्या मुमकिन है ? जैसा कि ऊपर के उदाहरण में हमने देखा कि मौजूदा तथ्यों को देखने से पहले ही सभी की कोई न कोई धारणा बनी हुई है और आप जो कुछ देखते हैं, उसके आधार पर बनने वाली आपकी राय में इन धारणाओं की मुख्य भूमिका होती है।
अब एक अन्य प्रश्न पर विचार कीजिये, क्या इन धारणाओं से मुक्त होना संभव है ? इसका उत्तर ढूढ़ने से पहले ये देखना पड़ेगा कि इन धारणाओं का निर्माण कैसे होता है। आप जन्म से मृत्यु तक लगातार सीखते रहते हैं। प्रारम्भिक सीखना अवलोकन के आधार पर होता है। एक बच्चे के रूप में आप अपने आस पास हो रही हर गतिविधि का अवलोकन करते हैं, आपका परिवार भी लगातार आपको सिखाता है। आपके जीवन भर के ज्ञान की आधारशिला इसी माहौल में बनती है। यहीं आप धर्म, नस्ल, जाति, भूगोल, वातावरण सबसे संबंधित प्रथम छवि निर्मित करते हैं।
ऐसा नहीं है कि बाद में इस ज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन प्राथमिक रूप से बनी धारणाओं, ज्ञान आदि का प्रभाव आप पर जीवन भर रहता है। इसलिए मेरी समझ यही है कि निष्पक्षता एक आदर्श ज़रूर है लेकिन ये वास्तविकता नहीं हो सकती। तो क्या इस आदर्श का कोई मोल नहीं? मुझे लगता है कि इस आदर्श का महत्व इस बात में है कि हम अपनी धारणाओं से लगातार बचने की कोशिश करते हुए प्रदत्त तथ्यों को देखने की कोशिश करते हैं।
ये तो हुई उस सूचना के विश्लेषण की बात जो किसी वास्तविक घटना पर आधारित है। लेकिन, कल्पना कीजिये कि आपको कोई ऐसी सूचना दी जा रही है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि ये किसी ठोस घटना पर आधारित है, जबकि ऐसी कोई घटना घटित ही नहीं हुई। इसे ही आज हम फेक न्यूज़ के रूप में जानते हैं। याद कीजिये इराक़ में सद्दाम हुसैन की हुक़ूमत थी, उन पर यूरोपियन और अमेरिकन हुक्मरानों ने इल्ज़ाम लगाया कि उनके पास बड़े पैमाने पर संहार करने वाले हथियार हैं। उनके मना करने के बाद भी इस आरोप को सही बताने की कोशिश हुई। इराक़ पर हमला हुआ, करोड़ों लोगों को मार दिया गया, अरब का एक बेहद उन्नत देश तबाह हो गया, सद्दाम के खानदान के लोगों को चुन चुन कर ख़त्म किया गया। अंत में ये बात सामने आई कि ये आरोप झूठा था।
सोचिये, झूठी सूचना के आधार पर इराक़ पर हमला करने के लिए जनमत तैयार किया गया, फिर पूरे मुल्क़ को बर्बाद कर दिया गया। लगभग 30 साल बाद भी इराक़ संभल नहीं पाया है।
हमारे देश में कांग्रेस के ख़िलाफ़ 2G घोटाले का आरोप झूठा था, लेकिन इसके आधार पर सत्ता विरोधी जनमत तैयार किया गया। आज सोशल मीडिया जनमत निर्माण का एक ताक़तवर साधन है। लेकिन यहाँ भी आई टी सेल बने हुए हैं जिनका काम ही है कि जनमत बनाने के लिए सूचना प्रसारित किया जाए, भले ही ये सूचना फेक न्यूज़ ही क्यों न हो। कमाल देखिये, ये एक आपराधिक कृत्य है लेकिन इस पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होती।
अंत में, सोचिये जब जनता के पास सही सूचना पाने का कोई माध्यम ही न हो, जो सूचनाएं जनता को हासिल हो रही हों वो सभी किसी विशेष के हित में मिश्रित या विकृत की गई हों और ऐसी ही सूचनाओं की आप पर रात दिन बरसात हो रही हो तो आपका मत कितना सही होगा, और इस तरह निर्मित जनमत क्या सही में जनमत होगा ?
अंतिम बात, तो क्या हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है ?
मेरे विचार से हमें सूचनाओं को देखने के लिए कुछ मापदंड तय करने होंगे। सबसे पहले तो ये मानना पड़ेगा कि आप तक पहुंचने वाली हर सूचना अपने पीठ पर एक खास किस्म की सियासत लेकर पहुंचती है। इसलिए हर सूचना को देखने से पहले ये तय करना होगा कि ये सूचना किस तरह की राजनीति को मदद करने जा रही है। अगर इस सूचना से ध्वनित होने वाली सियासत व्यापक जनसमुदाय के हित में है तो ये हमारे लिए सही है और अगर इसका उल्टा है तो हमें उससे बचना है, यही नहीं उसको उलट पलट कर भी सोचना है। क्या इसके अलावा और कोई रास्ता है ?
आप भी विचार करें और अपनी राय से मेरा भी ज्ञानवर्धन करें !
Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। किसी भी विवाद के लिए द हरिशचंद्र उत्तरदायी नहीं होगा।