आग उगलता आसमान गहरे संकट का संकेत!

आग उगलता आसमान गहरे संकट का संकेत!

मध्य जून तक सम्पूर्ण उत्तर भारत  मानसूनी हवाओं की जद में आ जाता हैं। परन्तु इस बार दो तिहाई जून का महीना बीत गया पर मानसून का कहीं अता-पता नहीं है। मानसून के रूठने से वातावरण में तापमान अप्रत्याशित रूप से बढता जा रहा है। बढते तापमान के कारण पड रही भयंकर गर्मी से लोग-बाग बिलबिलाने लगें हैं और संगमरमर के मकान लगभग खौलने लगे हैं। इस अप्रत्याशित गरमी और लूॅ के थपेडों से पेड पौधे भी झुलसने लगे। इस अप्रत्याशित गरमी और लूॅ के थपेडों से होने वाली मौतों ने कोरोना काल की याद ताजा कर दिया हैं। पूरी रात घटते-बढते चाँद और टिमटिमाते सितारों से भरे- पूरे जिस आसमान को रात भर एकटक निहारते- निहारते मन नहीं भरता उस आसमान से दिन में नजर मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही हैं।  अगर हम सामूहिक रूप से गम्भीरता के साथ सजग और सचेत नहीं हुए तो भविष्य में हमारा आसमान आग  उगलने लगेगा । इसलिए आज हमें  फिर से अपनी पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण और विकास की वर्तमान संकल्पना के बारे में गम्भीरता से जानने समझने और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने पर चिंतन मनन करना होगा। आज जीवाश्म ईंधन का प्रयोग निरंतर बढता जा रहा है। जिसके कारण पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता। ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से धरती और समन्दर दोनों गरम होते जा रहे हैं। अत्यधिक गरमी बढने से सूक्ष्म जीव जन्तुओं और कीडो-मकोडो के जीवन पर संकट मंडराने लगें हैं। यह हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अशुभ संकेत है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइनस्टाइन ने कहा था कि-केवल  कीडे-मकोड़े तीन-चार वर्षों के लिए खत्म हो जाए तो दुनिया पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।

आज से लगभग साढे चार अरब वर्ष पहले पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह आग का दहकता हुआ गोला थी। परन्तु पर्यावरण में कुछ रासायनिक क्रियाएं हूई तदुपरान्त पृथ्वी ठंडी हूई बादल बने बारिश हूई तथा पृथ्वी पर जल भराव हुआ। इन्हीं जल भरावो में जीवन की सम्भावना बनी। इस तरह का कुदरती करिश्मा केवल पृथ्वी के साथ हुआ। इसलिए सौरमण्डल के सभी नौ ग्रहों में केवल पृथ्वी पर जीवन और प्रचुर मात्रा में जैव विविधता पाई जाती हैं। इसलिए पृथ्वी को अद्भुत ग्रह कहा जाता हैं। पृथ्वी समस्त जीवों का पालन पोषण तो करती हैं मनुष्य के शौक श्रृंगार को भी पूरा करती हैं। मनुष्य सहित समस्त जीव जंतुओं को स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाली पृथ्वी ही अगर अस्वस्थ, प्रदूषित और कुपोषित हो गई तो हमारी भावी पीढ़ियों का जीवन संकट में पड जायेगा। पृथ्वी अनगिनत जीव जंतुओं का प्रसव प्रांगण के साथ-साथ सभी प्राणियों का क्रीडांगन भी हैं। विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता पूर्वक शोषण कर रहा है उससे सम्पूर्ण पृथ्वी को आच्छादित करने वाला पर्यावरण निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा हैं। अगर प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन इसी तरह जारी रहा और इसी रफ्तार से हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता रहा तो भावी  पीढियों की किलकारियों के स्वर , भौरौ के गुंजन, पक्षियों के कलरव और दिगदिगंत तक गुंजित होने वाले गीतों के स्वर मद्धिम हो जायेगे । इसलिए अपनी प्यारी  पृथ्वी और पृथ्वी के पर्यावरण को बचाना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।  बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बेशुमार  दौलत कमाने की आसमानी महत्वाकांक्षा रखने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने लगभग पूरी पृथ्वी को अपनी मुट्ठी में भींच लिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जिस निर्मम्ता और निर्लज्जता से प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन किया जा रहा है उससे हवा, पानी, धरती और आसमान बुरी तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। इस तरह हमारी पृथ्वी और पर्यावरण के अस्तित्व पर संकट आ गया हैं। पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने की गरज से अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने 1970 मे पृथ्वी दिवस मनाने की परिकल्पना प्रस्तावित की। तबसे यह परम्परा स्थापित हूई कि- हर वर्ष 22 अप्रैल को विश्व के सभी देश पृथ्वी दिवस के रूप में मनायेगे। इसी तरह  पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए हर वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।

यह सर्वविदित तथ्य हैं कि- विकास करने और खुशहाल जीवन जीने में प्राकृतिक संसाधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परन्तु इन संसाधनों का मूर्खतापूर्ण उपभोग और उपयोग अनगिनत प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएं पैदा कर सकता हैं। इसलिए भावी पीढियों को ध्यान में रखते हुए विकास की योजनाए निर्धारित करनी होगी तथा संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है। इसलिए प्रायः अत्यंत प्राचीन काल से प्रत्येक समाज में चिंतक और विचारक  संसाधनों के संरक्षण पर अपने विचार प्रकट करते रहे हैं। इस संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा है कि- प्रकृति में प्रत्येक की आवश्यकता पूरी करने के लिए सबकुछ है परन्तु किसी की लालच को पूरा करने के लिए नहीं। अर्थात हमारे पेट भरने के लिए बहुत है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं। महात्मा गाँधी के अनुसार संसाधनों के ह्रास्व के लिए  स्वार्थी व्यक्ति तथा आधुनिक प्रौद्यौगिकी की शोषणकारी प्रवृत्ति जिम्मेदार हैं ।  इसलिए वह व्यापक जन भागीदारी द्वारा लघु कुटीर उद्योग धंधों पर आधारित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे। अंतराष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थित तरीके से संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल और संसाधन संरक्षण की वकालत 1968 मे क्लब ऑफ रोम ने की। इसके बाद 1974 मे शुमेसर ने अपनी पुस्तक “स्माल इज ब्यूटीफुल ” में इस विषय पर गांधी जी के दर्शन को एक बार फिर से दोहराया हैं। 1987 मे ब्रुन्ड्टलैंड आयोग रिपोर्ट द्वारा वैश्विक स्तर पर संसाधन संरक्षण में मूलाधार योगदान किया गया। इस रिपोर्ट ने सतत् पोषणीय विकास ( Sustainable Development) की संकल्पना प्रस्तुत की और संसाधन संरक्षण की वकालत की। सतत् पोषणीय विकास का अर्थ है भावी पीढ़ियों के भविष्य को ध्यान में रखकर और पर्यावरण कोई क्षति पहुंचाएं बिना संसाधनों का प्रयोग करना।

तीव्र औद्योगीकरण, नगरीकरण और आधुनिकीकरण की चाहत में पृथ्वी के प्राकृतिक भूगोल ,भूसंरचना भू-आकृति और भौगोलिक विन्यास को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया। इन चाहतो में पागल मानवीय महत्वाकांक्षाओं ने जल प्रबंधन के अधिकांश परम्परागत निर्मितियों कुऑ तालाब पोखरे जोहड़ और बावडियो को बेरहमी से पाट दिया गया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह देखने को मिलता है कि- आज देश के मेगा शहर अत्यधिक जल भराव के शिकार हैं तो ग्रामीण क्षेत्रों में भौमिक जल स्तर काफी नीचे चला गया है। इसलिए भारत के लगभग छह लाख गांवो में जल संकट गहराता जा रहा हैं। जल संकट के अतिरिक्त औद्योगिक विकास शहरीकरण और नगरीकरण के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध शोषण हुआ है। इस अंधाधुंध शोषण के फलस्वरूप पारिस्थितिकीय असंतुलन, भूमंडलीय तापन, ओजोन परत का क्षरण पर्यावरण प्रदूषण और भूमि निम्मनीकरण जैसी समस्याएं उत्पन्न हूई है।

बेतहाशा बढती जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए अधिक अनाज उत्पादन का दबाव बढता जा रहा हैं।  अधिक अनाज उत्पादन के लिए अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों, प्रयोग, खरपतवारनाशी और कीटनाशक दवाओं के अत्यधिक प्रयोग के कारण हमारी धरती अत्यधिक प्रदूषित होती जा रही ह हैं और भूमि की गुणवत्ता में निरंतर गिरावट आती रही। जिसके फलस्वरूप अनगिनत बीमारियाँ पाँव पसार रहीं हैं तथा हमारी समृद्ध जैव विविधता क्षीण होती जा रही हैं। अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों, खरपतवार नाशी और कीट नाशक दवाओं के प्रयोग के कारण अनगिनत जीव जंतु और अनगिनत वनस्पतियां विलुप्त होने के कगार पर पर हैं। इसलिए जिस तरह हम अपने लिए अपने सपनों के घर की देखभाल करने के लिए चितिंत रहते हैं उसी मनुष्य सहित समस्त जीव जंतुओं के प्राकृतिक आवास पृथ्वी के बारे में भी चिंतन करना चाहिए।

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मनोज कुमार सिंह
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।