न्यूरेमबर्ग अदालत का फैसला- सभी न्यायाधीशों को आजीवन कारावास

हमारे समय के दार्शनिक चिंतक, कवि, विश्लेषक कुमार अम्बुज का एक लेख *”भय ग्रस्त विवेक की आज्ञा कारिता”* अदब के क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जर्मनी के उन न्यायाधीशों पर अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चलाया गया जिनके कारण लाखों लोग मौत के घाट उतारे गए थे। इस अदालती कार्यवाही पर वर्ष 1961 में स्टेंनली क्रेमर ने *”जजमेंट ऑफ न्यूरेमबर्ग”* फिल्म बनाई थी। इस फिल्म को आधार बनाकर कुमार अम्बुज ने उस काल की जर्मनी में हिटलर की तानाशाही के विकास क्रम में वहां की न्याय व्यवस्था को समझने का प्रयास किया है। तत्कालीन न्यायाधीशों ने हिटलर का साथ दिया और अपने ही देश के निरपराध लोगों को मौत के घाट उतारने में मददगार बने। वर्तमान विश्व में भी कई लोकतांत्रिक राज्य सत्ताओं पर दक्षिणपंथी रुझान हावी है। वे अपने-अपने देशों में तानाशाही की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। ऐसे में स्वतंत्र न्याय प्रणाली ही मानवता को बचा सकती है। इसे भारतीय संदर्भों में भी समझा जा सकता है।

फिल्म के अनुसार राजनीतिक हत्यारों का भी एक झंडा, एक प्रार्थना गीत, हथियारबंद परेड, एक खास धुन… एक संगठन, स्पष्ट उद्देश्य और किसी भी तरीके से उसे पूरा करने का संकल्प होता है। संसार का कोई भी दल प्रमुख, कोई राजाध्यक्ष, कोई तानाशाह खुद हत्या नहीं करता। वह तो बस एक मारक तंत्र विकसित कर देता है… यदि न्याय तंत्र भी इसका शिकार हो जाए तो स्थिति शोचनीय और जटिल हो जाती है।

प्रकरण की सुनवाई करते न्यायाधीश का कथन- मुझसे वरिष्ठ अनेक न्यायाधीशों ने न्यूरेमबर्ग की अदालत में आने से मना कर दिया। वे दूसरे न्यायाधीशों पर निर्णय नहीं देना चाहते। जज कहता है कि यह पिछली शताब्दी के सबसे भयानक प्रकरण में से एक है। यह अपराध कई देशों के नागरिकों के साथ बर्बरता पूर्वक किया गया था। एक प्रजाति के खिलाफ एक नस्ल को नष्ट करने के अपराध पर किसी को तो आगे आना होगा।

न्यायाधीश कहता है यहां कानून के नाम पर अपराध किया गया है। चालाक सत्ताएं अपराध करने के लिए कानून बनाती है। तब प्रश्न उठते हैं कि क्या तानाशाह के राज्य में नौकरी करना, उसके आदेश का पालन करना, अपराध है ? फिर न्याय मूर्तियों के विवेक का क्या होगा ? न्याय को संवेदनशीलता, मानवीयता, सामाजिकता की जरूरत भी होती है। *विवेक हीन आज्ञाकारीता* सभ्य समाज को नष्ट करने का अंतिम चरण है। गलत फैसला अन्याय का बीज और फिर वटवृक्ष हो जाता है। न्यायाधीश यदि चाहते तो तानाशाह के ताकतवर होने से पहले उसे रोक सकते थे। वे भूल गए कि वे न्यायाधीश हैं और इनकी हैसियत सत्ताओं से कहीं ज्यादा है।

बचाव पक्ष का कथन- था कि न्यायकर्ताओं को इस तरह कटघरे में लिया जाएगा तो फिर न्याय की प्रक्रिया और स्वायत्तता खतरे में आ जाएगी। यह समझना होगा कि वे कानून नहीं बनाते, बने हुए कानूनों के अनुसार न्याय करते हैं। जवाबदेही घटनाओं की लंबी श्रृंखलाओं का परिणाम है। किसी एक कड़ी को छांट कर जवाबदार नहीं ठहराया जा सकता… ध्यान रखना होगा कि तानाशाही में न्यायाधीशों पर भी संकट होता है। हमारा कहना है कि हम अपने देश के कानून से बंधे थे। लेकिन पूरा यूरोप शेष संसार हस्तक्षेप क्यों नहीं कर रहा था। अधिकांश देश तो हिटलर से संधिया कर रहे थे।

आरोपी पक्ष का कथन- था कि न्यायाधीश भले ही कानून नहीं बनाते पर उन्हें सही भावना से लागू करना सुनिश्चित तो कर सकते थे। जब तक पीड़ित के प्रति संवेदना की दृष्टि और करुणा नहीं होगी वह कभी न्याय प्राप्त नहीं कर सकेगा। जो अपराध राज्य शासन द्वारा राजनीतिक स्वार्थ प्रेरित होते हैं, उन्हें केवल न्यायालय दुरुस्त कर सकता है। एक सैनिक अपना जीवन जोखिम में डालकर भी देश बचाता है, उसी तरह न्यायाधीशों से भी देश हित में काम करना अपेक्षित है।

बचाव पक्ष का कथन- देश की बेहतरी और विकास के लिए न्यायाधीश तो कानून के, नियम के, आदेश के पालनहार थे। ये न्यायाधीश कानूनी शपथ से बंधे थे कि वे देश के सर्वोच्च नेता की आज्ञा मानेंगे… राज आज्ञा पालन दोष नहीं इसलिए उन्हें अपराधी कहना ठीक नहीं।

आरोपी पक्ष- ये न्यायाधीश  यदि गुलाम बनाने वाली उस शपथ को बनने ही नहीं देते, लागू ही नहीं होने देते तो तानाशाह कभी निरंकुश सम्राट नहीं हो पाता। लेकिन इन्होंने देश की जनता से कहीं अधिक तनख्वाह, सेवानिवृत्ति उपरांत सुविधाओं की परवाह की। ये भूल गए कि न्यायिक फैसलों में नैतिकता को भी दर्ज करना होता है ताकि आम नागरिक ठीक तरह से जीवित रह सके। बिना पीड़ित पक्ष को सुने उन्होंने लोगों को मारने के आदेश दिए, इनके निर्णय हत्यारे हैं।

गवाह का बयान- हम उस क्रूर समय के चुंगल से निकल आए हैं वह समय गरिमा पूर्ण नहीं था। बहुसंख्यक आर्यों से अल्पसंख्यक यहूदी को साधारण सामाजिक संपर्क रखने की इजाजत नहीं थी। आर्य से अनार्य का स्नेह- प्रेम अश्लील, गैरकानूनी, राजद्रोह और दंडनीय था। आज तक कोई भी सक्षम राजनीतिक, सरकारी या प्रशासनिक हत्यारे दंडित नहीं हुए हैं। जो जितना बड़ा हत्यारा उतना ही ज्यादा सुरक्षित। जो सच बोलता है वह गिरफ्तार होता आया है। सच बोलने वाले को जमानत नहीं मिलती। इसके बाद भी लोग गवाही देने जाते हैं… यह जानते हुए भी कि मुमकिन है उन्हें वापसी के रास्ते में ही मार डाला जाए… ठीक उसी समय उनके घर तोड़े जा रहे होते हैं…. समय साक्षी है कि वह समय ऐसा था कि सरकारी स्वप्न के खिलाफ हर गवाही झूठी ठहरा दी जाएगी… तुम यहूदी हो तुम कैसे निर्दोष हो सकते हो ?

आरोपी न्यायाधीशों में प्रमुख-  वह नाजियों का वक्त था, जर्मनी में भूख और बेरोजगारी थी। लोकतंत्र के सारे तत्व नष्ट कर दिए गए थे। सब तरफ सिर्फ भय ही भय था।…  हमें समझाया गया कि कम्युनिस्ट, उदारवादी, अल्पसंख्यक, यहूदी, बंजारे, आदिवासी नष्ट होंगे तो सभी देशवासी संपन्न हो जाएंगे। हिटलर ने हमें समझाया देश खतरे में है। कुछ सख्त कदम उठाने होंगे। संदेश दिया गया आगे बढ़ो… यह कूट संकेत था… कुचलते हुए भी आगे बढ़ो। 

घ्रृणा और ताकत ने हिटलर को विस्मयकारी नेता बना दिया था। घृणा कुछ समय की बात नहीं होती। वह प्रवेश कर ले तो जीवन प्रणाली हो जाती है… हमें अच्छी तरह से पता था कि हमारा नेता घृणा का प्रचारक है… हम देख रहे थे कि लोगों की सरे बाजार हत्याएं हो रही है। कई बार हम चीजों को इसलिए भी नहीं जानते क्योंकि हम जानना नहीं चाहते थे… इसी में हमारी व्यक्तिगत भलाई थी।

इस स्वीकारोक्ति पर बचाव पक्ष- वे सारे देश भी अपराधी हैं जो हिटलर के साथ खड़े हुए थे। हिटलर की किताब “मेरा संघर्ष”, उसका एजेंडा संसार के समक्ष था। सबको पता था हिटलर यहूदियों का, अपने विरोधियों का, कम्युनिस्टों का, बुद्धिजीवियों का क्या करने जा रहा है। इसलिए संसार के बाकी देश भी इस जवाबदारी से बच नहीं सकते।

फैसला- यह कठिन फैसला है। इन आरोपी न्यायाधीशों ने न्याय के आसन पर बैठकर अमानवीय कानूनों को क्रियान्वित किया… आदेश दिए ताकि लोगों को मारा जा सके। यह *विवेक हीन आज्ञाकारीता* थी। ये आमजन नहीं कानून- संविधान के ज्ञाता थे। राजनीतिक कारणों से लोगों को सताया जा रहा था। मासूम बच्चों तक की हत्याएं की जा रही थी… दृढ़ मानवीय निर्णय लेकर न्यायाधीश इसमें हस्तक्षेप कर सकते थे। जो लाखों लोग न्यायालय में किए गए दस्तखतों से मारे गए, अन्याय से मारे गए, न्यूरेमबर्ग की अदालत द्वारा इन सभी आरोपी न्यायाधीशों को आजीवन कठोर कारावास दिया जाता है। इसी में न्याय की विजय है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। ये जरूरी नहीं कि द हरिश्चंद्र इससे सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।

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