अपने कमाल, करतब और करिश्मे से बेटियां ही कर सकती हैं दहेज का अंतिम संस्कार

अपने कमाल, करतब और करिश्मे से बेटियां ही कर सकती हैं दहेज का अंतिम संस्कार

आदिम, असभ्य, बर्बर और अनपढ़ जीवन से सभ्य, सुसंस्कृत और सुशिक्षित जीवन के विकासक्रम में और चरण-दर-चरण सभ्यता की ओर उत्तरोत्तर डग भरते हुए मनुष्य ने किसी पंडाॅव पर यौन अराजकता को रोकने और स्त्री-पुरुष संबंधों में स्थिरता,सुनिश्चितता, स्थायित्व और अनुशासन लाने तथा सुनिश्चित दंपत्तियों द्वारा उत्पन्न संततियों के समुचित पालन-पोषण और देख-रेख के लिए सम्भवतः विवाह जैसी संस्था का विकास किया होगा । विवाह जैसी संस्थाओं के अस्तित्व में आने के फलस्वरूप ही समाज निर्माण की  बुनियादी इकाई परिवार अस्तित्व में आया । परिवार के अस्तित्व में आने से मानव जीवन में बहुआयामी दृष्टि से  क्रांतिकारी परिवर्तन आया। परिवार के अस्तित्व में आने से आवारा जंगली जानवरों की तरह घूमने वाला मानव सुनिश्चित जिम्मेदारियों के एहसास के साथ सुस्थिर और सुनिश्चित , सुव्यवस्थित और अनुशासित जीवन जीने का प्रयास करने लगा । सुनिश्चित जीवन साथी के साथ जीवन गुजर-बसर की इस नूतन जीवनशैली और दिनचर्या ने मनुष्य को अपनी संततियों के पालन पोषण के कर्तव्यबोध से आबद्ध और प्रतिबद्ध कर दिया तथा इस जीवन शैली ने मनुष्य को आवारा और बदचलन होने से काफी हद तक बचाने का प्रयास किया।

सामाजिक और सांस्कृतिक अनुशासन के माध्यम से एक सुव्यवस्थित और सुसंगठित समाज  कायम करने तथा यौन संबंधो में स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण करने की सदिच्छा से विकसित की गई विवाह जैसी संस्था वर्त्तमान समय में  धन-दौलत की हवस और  लिप्सा की कोख़ से उपजी दहेज जैसी घिनौनी कुप्रथा के कारण दो परिवारों के मध्य निर्मम और निर्लज्ज सौदेबाज़ी का रूप धारण कर चुकी है। ना जाने इतिहास के किस कालखंड में और किन कारणों से दहेज प्रथा का आरम्भ हुआ परन्तु बढते बाजारवादी और उपभोक्तावादी  दौर में यह वीभत्स और भयावह रूप धारण कर चुकी है। भौतिक वस्तुओं के आधार पर हैसियत आकलन के बढते चलन-कलन और दहेज़ की रकम को दूल्हे के कुल-खानदान द्वारा मौलिक अधिकार समझने के कारण दहेज प्रथा घर बैठे-बिठाऐ चोखा धन्धा होती  जा रही है। जिसके कारण दहेज प्रथा  हिंसा और क्रूरता की पराकाष्ठा पर भी  पहुंच चुकी हैं । ध्यातव्य हो कि-वयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि- अप्रत्यक्ष और अनौपचारिक रूप से दहेज वर पक्ष का मौलिक अधिकार बन चुका है। वर्तमान समय में घर की चहारदीवारी के अंदर होने वाली घरेलू हिंसा और उत्पीड़न के आंकड़ों का गम्भीरता से विश्लेषण किया जाए तो घरेलू हिंसा और महिलाओं के उत्पीड़न का सबसे बड़ा कारण दहेज प्रथा ही हैं ।

एक तरफ जहां गाँव-देहात में यह कहावत प्रचलित रहती हैं कि-” बिन घरनी घर भूत का डेरा “उस गांव देहात में आज घरनी अर्थात नयी नवेली घरनी को एक अदद मोटरसाइकिल या एक अदद  सोने की चैन या एक अदद  टीवी इत्यादि के लिए मारा-पीटा जाता है, दूल्हे के परिवार के सभी सदस्य समय-समय पर ताने मारते रहते हैं और अपना घर-बार छोड़ कर आई नये घर में अपनत्व ढूँढती नयी बहुरियाॅ को खाने के लिए ताने मिलते हैं तथा अपने माता-पिता से दहेज की तयशुदा रकम वसूलने और अधिक से अधिक नेग लाने के लिए विवश किया जाता हैं । कभी-कभी तो इसका  अत्यंत वीभत्स और मानवता को शर्मसार करने वाला स्वरूप सामने आता है । जब माता-पिता से मन माफिक वसूली न कर पाने पर नयी नवेली दुल्हन को जला दिया जाता हैं और लीपा-पोती करते हुए इसे आत्महत्या बताने का प्रयास किया जाता है। जिस देश में सदियों से बेटियों को घर की लक्ष्मी माना जाता रहा है और जहाँ ” *यत्र नार्यस्तु पूज्य्ंते रंमते तत्र देवता* ” का उद्घोष गुंजित होता रहा है वहाँ मात्र दहेज की रकम कम देने के लिए अनगिनत घरों की अनगिनत लक्ष्मियों को प्रताड़ना का शिकार होना  पड़ता हैं ।

अपने कमाल, करतब और करिश्मे से बेटियां ही कर सकती हैं दहेज का अंतिम संस्कार

समाज के हर वर्ग,जाति,समुदाय और सम्प्रदाय में बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढती दहेज प्रथा आज सर्वव्यापी समस्याॅ बन चुकी हैं। किसी भी स्तर की सरकारी नौकरी मिल जाने पर घर परिवार से लेकर रिश्तेदारों का रौब रुतबा सातवें आसमान पर पहुंच जाता हैं। संघ लोक सेवा आयोग ,विभिन्न राज्य लोक सेवा आयोगों सहित रेलवे बैंकिंग शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि में भर्ती के स्थापित भर्ती बोर्डों द्वारा चयनितों की बोली उसी तरह लगती है जैसे इण्डियन प्रीमियर लीग में क्रिकेट के खिलाडियों की लगती हैं। यही नहीं बल्कि जिस शिक्षक समाज को भावी कर्णधारों का चरित्र निर्माण और सर्वांगीण विकास की जिम्मेदारी सौंपी गई है उस शिक्षक समाज के मूर्धन्य विद्वान भी चयनित होने पर दहेज के रूप में मोटी रकम लिए बिना शादी विवाह नहीं करते हैं । इस समस्याॅ के वैसे तो बहुत से कारण हैं पर एक पिता के रूप में पुरूष वर्ग की दोहरी मानसिकता और दोहरा चरित्र सर्वाधिक जिम्मेदार है। पुरुष के रूप में एक पिता बिलकुल दोमुहाॅ साॅप की तरह होता हैं। जब वह अपनी लडकी की शादी के लिए दरवाजे-दरवाज़े भटकता है तथा लोभी लालचियों और दौलत के भूखे भेड़ियो द्वारा दहेज के नाम पर मोटी रकम की मांग करने पर दहेज प्रथा को खूब कोसता हैं और दहेज को मिटाने के लिए दोगुनी उर्जा से तत्पर हो जाता हैं। परन्तु जब अपने नौकरीशुदा बेटे की शादी की बात याद आती हैं तो वह मूॅछ ऐठकर लम्बी लम्बी डींगे हाॅकता हैं और उसके  हृदय में अपने बेटी को दिए दहेज की भरपाई करने की उत्कंठा प्रबल वेग से जाग्रत हो जाती हैं तथा अपने बेटे की पढाई लिखाई पर किये गये अपने खर्च की रकम भी जोड़ने लगता है। वह दहेज की लम्बी-चौडी सूॅची बेटी के बाॅप को इस तरह पेश करता है जैसे कोई वित्तीय मामलों का मर्मज्ञ  वित्त मंत्री संसद में बजट पेश करता है। पुत्र के नाम पर एक कुशाग्र वितमंत्री की तरह दहेज का बजट पेश करने वाले ऐसे दोमुहाॅ साॅपो के आसरे दहेज प्रथा की न तो लडाई लडी जा सकती हैं और न इस घृणित कुप्रथा को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता हैं। इस विषय में एक और बडी विडम्बना है कि-संघ लोक सेवा आयोग और अन्य प्रतियोगिता परीक्षाओं में दहेज प्रथा पर उम्दा निबंध लिखकर सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले शादी व्याह के अवसर पर सफ़ेदपोश तरीके से और  शिष्टाचारपूर्ण ढंग से खरीद-फरोख्त के शिकार हो जाते हैं।

बहुतेरे कानूनों, समाज सुधार और जागरुकता के कार्यक्रमों के बावजूद दहेज भारतीय समाज में एक महामारी का रूप धारण करती जा रही है। अंतिम रूप से इसका निदान भी उन्हें ही ढूँढना हैं जिनके कारण दहेज दिया-लिया जाता हैं। दहेज प्रथा के खिलाफ अंतिम निर्णायक संघर्ष भारत की होनहार बेटियों को ही लडना होगा। दहेज की महामारी को देखते हुए आइने के सामने अपने सौंदर्य पर इतराने इठलाने वाली बेटियों को अब  अपनी अंतर्निहित क्षमता, प्रतिभा और अभिरुचि को पहचान कर ज्ञान विज्ञान कला साहित्य खेल कूद राजनीति और समाज सेवा में अपना करिश्मा करतब और कमाल दिखाना होगा। जैसे-जैसे  बहुतायत मात्रा में भारत की बेटियाँ विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा, कुशाग्रता ,मेधाशक्ति,पराक्रम और परिश्रम का परचम बुलंद करने लगेगी वैसे-वैसे  दहेज के लिए मुँह बाएं भूखे भेड़ियों के हौसले पस्त होते जायेंगे। इसलिए हर सजग, सचेत और  समझदार माता पिता को अपनी बेटियों को उनकी योग्यता क्षमता के अनुसार आगे बढने और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का अवसर देना चाहिए। जिस तरह तन मन और धन से बेटों के भविष्य निर्माण के लिए माता-पिता तत्पर रहते हैं उसी तरह हर माता-पिता को बेटियों के भविष्य निर्माण के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। ताकि बेटियाॅ अपने अन्दर छिपी हुई कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स,पी टी उषा, कर्णमलेश्वरी, साइना नेहवाल, किरण बेदी, महाश्वेता देवी,साक्षी मलिक,पी वी सिंधू टीना डाबी, नैना लाल किदवई और बिद्या छाबड़िया जैसी अनगिनत आदर्श महिलाओं की तरह तलाश, तराश और निखार सकें। जिस दिन बेटियाँ इस तरह विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और क्षमता को तराशकर और निखार कर अपनी उपलब्धियों के झंडे फहराने लगेगी तो निश्चित रूप से दहेज प्रथा धीरे-धीरे अपने अंतिम संस्कार की तरफ बढ़ने लगेगी। अपनी प्रतिभा क्षमता के अनुरूप पद प्रतिष्ठा प्राप्त होने से बेटियों के अंदर स्वाभिमान आयेगा और अपने पैरों पर खड़ा होने का हौसला मिलेगा। इन्हीं हौंसलों और पैरों में आई आत्मनिर्भरता की ताकत से जब बेटियाॅ दौलत के भूखे भेड़ियो को दरवाजों से ठोकर मारने का साहस दिखाने लगेगी तो दहेज प्रथा रूपी राक्षस अंतिम सांसें गिनने लगेगा।

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मनोज कुमार सिंह
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार एवं विश्लेषक है। हमारी पाठकों से बस इतनी गुजारिश है कि हमें पढ़ें, शेयर करें, इसके अलावा इसे और बेहतर करने के लिए, सुझाव दें। धन्यवाद।