श्री सम्मेद शिखरजी एक तीर्थ स्थल है, उसे पर्यटन स्थल घोषित करने का फैसला वापस ले सरकार : जैन समाज।

संयुक्त जैन समाज का प्रमुख तीर्थ स्थल सम्मेद शिखर पर्वत इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। केंद्र और झारखंड की राज्य सरकार इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल बनाना चाहती है। वहीं जैन समाज इसे पवित्र तीर्थ स्थल घोषित करने की मांग कर रहा है। इस हेतु जैन समाज ने देशभर में प्रदर्शन किए अपना व्यवसाय बंद रखकर विरोध दर्ज करवाया। हालांकि झारखंड सरकार के पर्यटन सचिव का एक बयान सामने आया है जिसके अनुसार शिखरजी की पवित्रता को बनाए रखने के लिए वहां मांस मदिरा पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है। सरकार अधिनियम में संशोधन कर इसे जैन धार्मिक स्थल घोषित कर सकती है लेकिन फिर वह वह सुविधाएं नहीं दे सकेगी जो पर्यटन अधिनियम के तहत मिलती है।

महत्व है सम्मेद शिखर का

जैन धर्मावलंबियों के लिए झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित सम्मेद शिखर का महत्व इसलिए है कि इस धर्म के 24 तीर्थंकरों में से 20 का महानिर्वाण इसी शिखर पर हुआ था। मान्यता है कि जैसे गंगा नदी में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं उसी तरह से इस पर्वत की वंदना करने से पापों का नाश होता है। शिखर परिसर के 27 किलोमीटर दायरे में अनेक मंदिर बने हुए हैं।उल्लेखनीय है कि जैन धर्मावलंबियों का बड़ा तीर्थ गुजरात स्थित पालीताणा देश का पहला शाकाहार क्षेत्र घोषित हुआ था। बाद में अयोध्या और काशी को भी पवित्र घोषित किया गया।

केंद्र और राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल बनाने की बात कही गई है। अधिसूचना के अनुसार सम्मेद शिखर के एक भाग को वन्यजीव अभयारण्य बनाया जाएगा। क्षेत्र के निवासियों को मछली और मुर्गी पालन की अनुमति दी जाएगी। यही नहीं यहां छोटे उद्योगों को भी बढ़ावा दिया जाएगा। 21 अगस्त 1983 को जब झारखंड बिहार से अलग नहीं हुआ था तब बिहार सरकार ने इस शिखर को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया था। इसी आधार पर 2 अगस्त 2019 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस क्षेत्र को संवेदनशील क्षेत्र की परिधि में रखा।

मुगल शासकों ने किया था सरंक्षण

इतिहास के अनुसार सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व तीर्थंकरों एवं  अनेक संतों ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया था। नवीं शताब्दी आते-आते यहां स्थित कई मंदिर नष्ट हो गए। वर्ष 1592 आचार्य हीर विजय सुरेश्वर जी महाराज के अनुरोध पर मुगल सम्राट अकबर ने एक फरमान जारी कर पालीताणा, गिरनार, केसरियाजी, आबू और सम्मेद शिखर जैन धर्मावलंबियों के हवाले कर दिया था। 1698 इसवी में मुगल सम्राट जहांगीर के दूसरे बेटे आलमगीर ने जैन तीर्थ यात्रियों के लिए शिखरजी पहाड़ को कर मुक्त घोषित किया था। 1760 में मुगल साम्राज्य के अधीन बंगाल सूबे के नवाब अहमद शाह बहादुर ने मुर्शिदाबाद के जगन सेठ को शिखरजी पहाड़ की भूमि प्रदान की थी। 

1846 के ब्रिटिश काल में लेफ्टिनेंट बीडल ने शिखरजी पहाड़ी का सर्वेक्षण किया उसके अनुसार वहां संथाल आदिवासियों की आबादी 16 हजार थी। हर साल यहां मेले का आयोजन होता था। पहाड़ी के ऊपर जानवरों के शिकार में भाग लेने की छूट थी। 1876 में पाताल गढ़ के नाम से पहचाने जाने वाला पालगंज पर बघेल क्षत्रियों का शासन था। जिसे पालगंज राजा के नाम से जाना जाता है। उस राजा ने शिखरजी पहाड़ी पर 2000 एकड़ का स्थाई पट्टा बोडडम नामक अंग्रेज बागान मालिक को दिया। बागान मालिक ने वहां एक फैक्ट्री भी स्थापित की जहां सूअरों का वध किया जाता था। श्वेतांबर जैन समाज ने पालगंज के राजा के खिलाफ न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया और प्रमाण के रूप में अकबर द्वारा जारी फरमान बताया। जिसके अनुसार पहाड़ी पर कोई जानवर नहीं काटा जा सकता। अदालत के आदेश पर वहां कत्लखाना बंद कर दिया गया।

दिगंबर – श्वेतांबरों में भी रहा है विवाद

पूजा के अधिकार को लेकर सम्मेद शिखर पर दिगंबर एवं श्वेतांबर समुदायों में भी विवाद रहा है। सन 1901 में श्वेतांबरों ने पहाड़ी के सबसे ऊंचे हिस्से पर एक संगमरमर के मंदिर का निर्माण शुरू किया जहां भगवान पार्श्वनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया था। दिगंबर समुदाय ने इसका विरोध किया। 1907 में पहाड़ी पर सेनेटोरियम के निर्माण का प्रस्ताव आया जिस पर जैन समाज के दोनों संप्रदायों ने विरोध जताया। लेफ्टिनेंट गवर्नर का मानना था कि यह पहाड़ी जमींदारों की है न कि जैन धर्मावलंबियों की। जैन संप्रदाय जन चाहे तो जमीदारों को पर्याप्त मुआवजा देकर पहाड़ी के किसी भी हिस्से को खरीद सकते हैं। 1910 में पालगंज के राजा ने शिखरजी पहाड़ी को अनिश्चितकाल के लिए पट्टे पर देने का फैसला किया। 9 मार्च 1918 को आनंद जी कल्याण जी (श्वेतांबर) पेढ़ी ने 2 लाख 42 हजार रुपये में पहाड़ी के अधिकार खरीद लिए। सालाना 4 हजार रुपए भू- भाटक  देना भी तय हुआ। उन्होंने पहाड़ी पर संतरी नियुक्त किए। दैनिक रोजगार करने वाले एवं तीर्थ यात्रियों, पुजारियों के लिए आवास बनवाना प्रारंभ किया जिसका दिगंबर समुदाय ने विरोध किया। 1925 में यह विवाद प्रिवी काउंसिल ( ब्रिटिश युग में सर्वोच्च न्यायालय ) तक पहुंचा था।

आजादी के पश्चात बिहार सरकार ने भूमि सुधार अधिनियम की धारा 3 (1) के तहत अधिसूचना जारी कर शिखरजी पहाड़ी को आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी से लेकर सरकारी भूमि घोषित कर दिया था। 5 फरवरी 1965 में बिहार सरकार और आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी के बीच समझौता हुआ जिसके तहत वहां स्थित धार्मिक स्थलों की पूजा पाठ के स्थानों को भूमि सुधार अधिनियम की अधिसूचना से बाहर कर दिया गया। बावजूद इसके शिखरजी के स्वामित्व को लेकर अदालती कार्यवाही चलती रही। इस बीच बिहार का विभाजन हो गया और अब यह विवाद जैन समाज और झारखंड सरकार के बीच है। उच्च न्यायालय से लेकर अब प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में है।

Disclaimer: इस लेख में अभिव्यक्ति विचार लेखक के अनुभव, शोध और चिन्तन पर आधारित हैं। ये जरूरी नहीं कि द हरिश्चंद्र इससे सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।

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