छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया : क्या हर घटना समाचार है?

पत्रकारिता और समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?

आज यह कहा जाता है कि मानव सभ्यता सूचना युग में प्रवेश कर रही है। पिछले 50 वर्षों में संचार और सूचना के क्षेत्र में एक क्रांति आई है। आज दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली किसी घटना की जानकारी हमे चंद पलों में मिल जाती है। हमारे जीवन में समाचार माध्यमों का महत्व बहुत बढ़ गया है। देश-दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसकी अधिकांश जानकारियां हमें समाचार माध्यमों से मिलती हैं। यह भी कह सकते हैं कि हमारे प्रत्यक्ष अनुभ्ज्ञव से बाहर की दुनिया के बारे में हमे अधिकांश जानकारियां समाचार माध्यमों द्वारा दिए जाने वाले समाचारों से ही मिलती है। इसलिए प्रश्न पैदा होता है- समाचार क्या हैï? पत्रकारिता के उद्भव और विकास के पूरे दौर में इस प्रश्न का सर्वमान्य उत्तर कभी किसी के पास नहीं रहा। आज पत्रकारिता और संपूर्ण मीडिया जगत की तेजी से बदलती तस्वीर से इस प्रश्न का उत्तर और भी जटिल होता जा रहा है। लेकिन हर खास परिस्थिति और वातावरण में चंद घटनाएं ऐसी होती हैं जो समाचार बनने की कसौटी पर खरी उतरती हैं और उससे कहीं अधिक बड़ी संख्या ऐसी घटनाओं की होती है जो समाचार नहीं बन पाती। यहां समाचार से आशय समाचार माध्यमों में प्रकाशित- प्रसारित किए जाने वाले ‘‘समाचारों’’ से है।

लेकिन क्या हर घटना, समाचार है? क्या वह हर बात समाचार है जिसके बारे में पहले जानकारी नहीं थी? क्या वह सब समाचार है जिसके बारे लोग जानना चाहते हैं या जिसके बारे में लोगों को जानना चाहिए? क्या समाचार वही है जिसे एक पत्रकार समाचार मानता है? क्या वही सब समाचार हैं जिन्हें मीडिया के मालिक और संचालक समाचार मानते हैं और जिनके बारे में वे अपने ही तरह के अनुसंधान के आधार पर यह मान लेते हैं कि लोग यही चाहते हैं इसलिए यही समाचार है? समाचार निश्चय ही अपने समय के विचार, तथ्य और समस्याओं के बारे में ही लिखे जाते हैं। अनेक विद्वानों ने अपने ही ढंग से समाचार की विशेषताओं का उल्लेख किया है। हर प्रेरक और उत्तेजित कर देने वाली सूचना समाचार है। समय पर दी जाने वाली हर सूचना समाचार का रूप अख्तियार कर लेती है। किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है। समाचार जल्दी में लिखा गया है। वह सब समाचार है जो आने वाले कल का इतिहास है।

समाचार निश्चय ही कोई किस्सा-कथानक वृत्तांत और रिपोर्ट है। इसके संप्रेषण के अनेक रूप हो सकते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को समाचार का संप्रेषण कर सकता है। इसके अलावा समाचार अनेक तरह के समाचार माध्यमों से भी प्रकाशित और प्रसारित किए जाते हैं,

एक पत्रकार के सामने भी सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि क्या उसने समाचार को इस तरह लिखा और प्रस्तुत किया कि वह वही अर्थ और संदर्भ अपने पाठक/दर्शक/श्रोता को प्रेषित कर पाया जो वह चाहता था। अक्सर ऐसा नहीं होता और इन दिनों तो अधिकधिक ऐसा नहीं हो रहा है। समाचार में संभावित सूचनाओं या तथ्यों के स्रोत क्या हैं इससे भी भारी अंतर पैदा होता है। सूचना स्रोत के भी सूचना देने के पीछे कुछ मकसद हो सकते हैं और होते हैं। इन मकसदों का चरित्र और स्वरूप क्या है- इस पर भी समाचार की सत्यता निर्भर करती है। अनेक मौकों पर स्रोत गलत सूचनाएं भी देते हैं जिससे समाचार निहित स्वार्थों की पूर्ति में ही अधिक सहायक होते हैं और सच्ची तस्वीर लोगों तक नहीं आ पाती।

एक पत्रकार ही किसी भी समाचार के आकार और उसकी प्रस्तुति का निर्धारण करता है। इसी तरह रेडियो और टेलीविजन में प्रस्तुतकर्ता समाचार में अपनी आवाज और हाव-भाव से भी बहुत कुछ कह सकता है। एक समाचारपत्र में एक समाचार मुख्य समाचार (लीड स्टोरी) हो सकता है और किसी अन्य समाचारपत्र में वही समाचार भीतर के पृष्ठï पर कहीं एक कॉलम का समाचार भी हो सकता है। एक टेलीविजन चैनल के लिए अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का समाचार पहला मुख्य समाचार हो सकता है तो संभव है कि कोई अन्य चैनल इराक में युद्ध को अपनी मुख्य खबर बनाने को प्राथमिकता दे। इस तरह के अनेक कारण और कारक हैं जो समाचार रूपी संदेश के प्राप्तकर्ता को इसकी स्वीकार्यता का स्तर तय करते हैं। किसी भी पाठक/दर्शक/श्रोता की अपनी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठïभूमि होती है जिनसे उसके अपने मूल्य उपजते हैं। इसलिए हर समाचार को वह अपने ही ढंग से स्वीकार या अस्वीकार करता है। सच्चाई का उसका अपना ही एक पैमाना होता है जिस पर वह हर समाचार/संदेश की माप-तौल करता है।

समाचार के उपभोक्ता अपने मूल्यों, रुचियों और दृष्टिïकोणों में बहुत विविधताएं और भिन्नताएं लिए होते हैं। इन्हीें के अनुरूप उनकी प्राथमिकताएं भी निर्धारित होती हैं। हाल ही के वर्षों में समाचारों का भी एक बाजार तैयार हुआ है और एक खास बाजार के लिए एक खास समाचार होता है। एक आदर्श स्थिति में एक पत्रकार के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती होती है कि किस तरह वह अपने ‘उपभोक्ता’ समूह (ऑडिएंस) के व्यापकतम तबके को संतुष्टï कर सके।

समाचार की एक सर्वमान्य विशेषता यह है कि यह किसी विचार, घटना या समस्या का विवरण है। लोग सोचते हैं और विचार उपजते हैं। विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए जब विचारों का आदान-प्रदान होता है तो हलचल पैदा होती है। इनसे नए उत्पाद पैदा हो सकते हैं। कोई नई सेवा अस्तित्व में आ सकती है। लोगों को कोई नया मकसद मिल सकता है। इसे अमन-शांति और टकराव की नई सीमाओं का निर्धारण हो सकता है। इनसे शांति और युद्ध के रास्ते बदल सकते हैं।

समाचार की परिभाषा

लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर ही करते हैं। सुख-दु:ख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सवों में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ ही होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी-बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव, कस्बे या शहरी की कॉलोनी में बिजली-पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। विचार, घटनाएं और समस्याओं से ही समाचार का आधार तैयार होता है। लोग अपने समय की घटनाओं, रुझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उन पर विचार करते हैं और इन सब को लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन की प्रक्रिया के केंद्र में इनके कारणों, प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। समाचार के रूप में इनका महत्त्व इन्हीं कारकों से निर्धारित होना चाहिए। किसी भी चीज का किसी अन्य पर पडऩे वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से ही समाचार की अवधारणा का विकास होता है।  किसी भी घटना, विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकते हैं कि यह समाचार बनने के योग्य है।

समाचार बनने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पहलू इसकी तथ्यात्मकता है। किसी की कल्पना की उड़ान कोई समाचार नहीं है। समाचार एक वास्तविक घटना है और एक पत्रकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती या दायित्व यह है कि कैसे वह ऐसे तथ्यों का चयन करे, जिससे वह घटना उसी रूप में पाठक या उपभोक्ता के  सामने पेश की जा सके जिस तरह वह घटी। इस तरह के तथ्यों यानि वे तथ्य जो इस घटना के समूचे यथार्थ का प्रतिनिधित्च करते हैं, का चयन करने के लिए एक खास तरह का बौद्धिक कौशल चाहिए। इस तरह का बौद्धिक कौशल होने पर ही हम किसी को प्रोफेशनल पत्रकार कह सकते हैं।

किसी भी घटना, विचार या समस्या का समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह नया हो। कहा भी जाता है ‘न्यू’ है इसलिए ‘न्यूज’ है। समाचार वही है जो ताजी घटना के बारे में जानकारी देता है। समाचार का नया होना आवश्यक है। वह अपने ऑडिएंस के लिए नया है होना चाहिए। एक दैनिक समाचारपत्र के लिए आम तौर पर पिछले 24 घंटों की घटनाएं ही समाचार होते हैं। एक चौबीस घंटे के टेलीविजन और रेडियो चैनल के लिए तो समाचार जिस तेजी से आते हैं उसी तेजी से अनेक समाचार बासी भी होते चले जाते हैं।

किसी विचार, घटना और समस्या के समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की उसमें दिलचस्पी है। वे इसके बारे में जानना चाहते हों। कोई भी घटना समाचार तभी  बन सकती है, जब लोगों का एक बड़ा तबका इसके बारे में जानने में रुचि रखता हो। स्वभावत: हर समाचार संगठन अपने लक्ष्य समूह (टार्गेट ऑडिएंस) के संदर्भ में ही लोगों की रुचियों का मूल्यांकन करता है। लेकिन हाल के वर्षों में लोगों की रुचियों और प्राथमिकताओं में भी तोड़-मरोड़ की प्रक्रिया काफी तेज हुई है और लोगों की मीडिया आदतों में भी परिवर्तन आ रहे हैं। इसलिए यह भी कह सकते हैं कि रुचियां कोई स्थिर चीज नहीं हैं, गतिशील हैं। कई बार इनमें परिवर्तन आते हैं तो मीडिया में भी परिवर्तन आता है। लेकिन आज मीडिया लोगों की रुचियों में परिवर्तन लाने में अधिकाधिक भूमिका अदा कर रहा है। इसलिए ऐसे अनेक समाचार आज उनके लिए रुचिकर हो सकते हैं जिनसे कल तक वे अपने आपको नहीं जोड़ते थे। संक्षेप में किसी घटना, तथ्य, विचार या समस्या समाचार में लोगों की रुचि का होना उसके समाचार बनने के लिए आवश्यक शर्त है।

इस विवेचन के उपरांत अब हम समाचार को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं :

समाचार किसी भी ताजी घटनाविचार या समस्या का विवरण या रिपोर्ट है जिसमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि है।

समाचार की इस परिभाषा में शायद कोई विवाद न हो। इसे एक तरह से समाचार की सर्वमान्य परिभाषा कहा जा सकता है। लेकिन लोगों की रुचि किन घटनाओं, विचारों या समस्याओं (आगे इसके लिए केवल घटनाओं शब्द का प्रयोग किया गया है) में है? यह रुचि क्यों होती है और इसमें परिवर्तन कैसे और क्यों आते हैं? लोगों की रुचियों और प्राथमिकताएं ही समाचार जगत और मीडिया पर होने वाले तमाम विचार-विमर्श और अनुसंधान के केंद्र में होती है। इस दृष्टिïकोण से समाचार की परिभाषा में विस्तार करना आवश्यक हो जाता है।

समाचार किसी भी ताजी घटना, विचार या समस्या की रिपोर्ट है जिसमें लोगों की रुचि हो लेकिन विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल में समाचार की अवधारणाएं और अर्थ भी भिन्न हो जाते हैं।

समाचारीय महत्व

            इन तमाम विविधताओं और भिन्नताओं के बावजूद किसी घटना का अपना एक समाचारीय महत्व होता है और जिसे अनेक कारक प्रभावित करते हैं। एक घटना को एक समाचार के रूप में किसी समाचार संगठन में स्थान पाने के लिए इसका समय पर सही स्थान यानि समाचार कक्ष में पहुंचना आवश्यक है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि उसका समायानुकूल होना जरूरी है। आज की तारीख के एक दैनिक समाचारपत्र के लिए वे घटनाएं समय पर हैं जो कल घटित हुई हैं। आमतौर पर एक दैनिक समाचारपत्र के हर संस्करण की अपनी एक डेडलाइन (समय सीमा) होती है जब तक के समाचारों को वह कवर कर पाता है। मसलन अगर एक प्रात:कालीन दैनिक समाचारपत्र कल रात 12 बजे तक के समाचार कवर करता है तो अगले दिन के संस्करण के लिए 12 बजे रात से पहले के चौबीस घंटे के समाचार समयानुकूल होंगे। इसी तरह 24 घंटे के एक टेलीविजन समाचार चैनल के लिए तो हर पल ही डेडलाइन है और समाचार को सबसे पहले टेलीकास्ट करना ही उसके लिए दौड़ में आगे निकलने की सबसे बड़ी चुनौती है।

इस तरह एक चौबीस घंटे के टेलीविजन समाचार चैनल, एक दैनिक समाचारपत्र, एक साप्ताहिक और एक मासिक के लिए किसी समाचार की समय सीमा का अलग-अलग मानदंड होना स्वाभाविक है, कहीं समाचार तात्कालिक है कहीं सामयिक तो कहीं समकालीन भी हो सकता है। इन तथ्यों के महत्व का निर्धारण समाचार माध्यम और पत्रकारिता लेखन के स्वभाव से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि 24 3 7 टेलीविजन माध्यम तात्कालिक अधिक होता है तो एक समाचारपत्र का लेख सामयिक या समकालीन अधिक हो सकता है।

किसी भी समाचार संगठन के लिए किसी समाचार के महत्व का मूल्यांकन उस आधार पर भी किया जाता है कि वह घटना उसके कवरेज क्षेत्र और पाठक/दर्शक/श्रोता समूह के कितने करीब हुई। हर घटना का समाचारीय महत्व उसकी स्थानीयता से भी निर्धारित होता है। सबसे करीब वाला ही सबसे प्यारा भी होता है। यह मानव स्वभाव है और स्वाभाविक भी है कि लोग उन घटनाओं के बारे में जानने के लिए अधिक उत्सुक होते हैं जो उनके करीब होती हैं। इसका एक कारण तो करीब होना है और दूसरा कारण यह भी है कि इसका असर भी करीब वालों पर ही अधिक पड़ता है। मसलन किसी एक खास कॉलोनी में चोरी-डकैती की घटना के बारे में यहां के लोगों की रुचि होना स्वाभाविक है। रुचि इसलिए कि घटना उनके करीब हुई है और इसलिए भी कि इसका संबंध स्वयं उनकी अपनी सुरक्षा से है। अपने आस-पास होने वाली घटनाओं के प्रति लोगों की अधिक रुचि से हम सब वाकिफ हैं और समाचारों और समाचार संगठनों का अधिकाधिक स्थानीयकरण इसी रुचि को भुनाने का परिणाम है।

इसके अलावा किसी घटना के आकार से भी इसका समाचारीय महत्व निर्धारित होता है। किस कारण कोई समाचार महत्त्वपूर्ण है किसके कारण कोई अन्य समाचार महत्वपूर्ण है। अनेक मौकों पर किसी घटना से जुड़े लोगों के महत्त्वपूर्ण होने से भी इसका समाचारीय महत्त्व भी बढ़ जाता है। स्वभावत: प्रख्यात और कुख्यात अधिक स्थान पाते हैं। प्रधानमंत्री को जुखाम भी हो तो समाचार है और अन्य कोई कितने ही बुखार से ग्रसित क्यों न हों शायद समाचार नहीं बन पाए। प्रसिद्ध लोगों की छोटी-मोटी गतिविधियां भी समाचार बन जाती हैं। याद कीजिए सलमान खान पर विवेक ओबराय का गुस्सा फूटना कितनी बड़ी खबर बनी थी।

इसके अलावा घटना के आकार से आशय यही है कि इससे कितने सारे लोग प्रभावित हो रहे हैं या कितने बड़े भू भाग में पहुंचा है आदि। किसी घटना का ‘प्रभाव’ भी इसके महत्त्व को निर्धारित करता है। सरकार के किसी निर्णय से अगर दस लोगों को लाभ हो रहा हो तो यह इतनी बड़ा समाचार नहीं जितना कि अगर इससे लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या एक लाख हो। सरकार अनेक नीतिगत फैसले लेती हैं जिनका प्रभाव तात्कालिक नहीं होता लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं और इसी दृष्टिï से इसके समाचारीय महत्त्व को आंका जाना चाहिए।

उपभोक्ता वर्ग

आमतौर पर हर समाचार का एक खास पाठक/दर्शक/श्रोता वर्ग होता है। किसी समाचारीय घटना के इस वर्ग से भी इसका महत्त्व तय होता है। किसी खास समाचार का ऑडिएंस कौन हैं और इसका आकार कितना बड़ा है। इन दिनों ऑडिएंस का समाचारों के महत्त्व पर प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबकों, जो विज्ञापन उद्योग के लिए बाजार होते हैं, में अधिक पढ़े जाने वाले समाचारों को अधिक महत्त्व मिलता है।

हर समाचारीय घटना का महत्त्व आंकने के लिए इसके संदर्भ का विशेष महत्त्व होता है। खास तौर से महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयानों और कथनों का महत्त्व उनके संदर्भ से ही तय किया जा सकता है।

अनेक अन्य मौकों पर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के बयान किसी संदर्भ में ही होते हैं और इस संदर्भ को जाने-समझे बिना कोई पत्रकार इस बयान के समाचारीय महत्त्व को नहीं आंक सकता। संदर्भ को समझने के लिए विषय की समझ जरूरी है। उदाहरण के लिए दुनिया के लगभग सभी देश आतंकवाद की भत्र्सना करते हैं। लेकिन जब भारत, इस्राइल, फिलिस्तीनी, अमेरिका या पाकिस्तान आतंकवाद की भत्र्सना करते है तो इनका अर्थ भिन्न होता है और इसे इसके संदर्भ में समझना होता है।

इन बयानों को इनके संदर्भ से काटकर कभी भी उचित समाचारीय महत्त्व नहीं दिया जा सकता। भारत की सबसे बड़ी चिंता कश्मीरी आतंकवाद है जो समय-समय पर देश के अन्य हिस्सों में भी वारदातें करता है मसलन संसद पर हमला। कश्मीर आतंकवाद को जिंदा रखने में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। पाकिस्तान के समर्थन के बिना कश्मीर में आतंकवाद चलाया ही नहीं जा सकता। फिलिस्तीनीयों के लिए इस्राइल एक आतंकवादी राज्य और वहां की सरकार आतंकवादी हमले करती है। इस्राइल का मानना है कि वह फिलीस्तीनी आतंकवाद का शिकार है और उसकी हर सैनिक कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ होती है। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है और इस युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका का सामरिक सहयोगी है। समूचे इस्लामी और अरब राज्यों में अमेरिकी रणनीति में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। रूस को उस आतंकवाद की चिंता है जो चेचन्या में इसे परेशान किए हुए है। नेपाल की चिंता शायद माओवादी आतंकवादी हैं।

इन तमाम संदर्भों में ही उपरोक्त संयुक्त बयानों के समाचारीय महत्त्व, उनमें लेखन, संपादन, शीर्षक आदि का चयन किया जा सकता है। जो पत्रकार इन संदर्भों से वाकिफ नहीं हैं वे इन घटनाओं के समाचार लिखने, संपादित करने और इनके महत्त्व को आंकने में विफल होने के लिए ही बाध्य है।

नीतिगत ढांचा

किसी समाचार संगठन की कोई नीति होने का मतलब लेखन की स्वतंत्रता पर अंकुश है। अगर किसी मसले पर समाचार संगठन की कोई नीति है, तो इसका मतलब वह इस नीति के अनुसार ही समाचार प्रकाशित करेगा और विचारों की अभिव्यक्ति करेगा। इसलिए कोई भी समाचार संगठन कभी यह स्वीकार नहीं करेगा कि व्यापक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर उसकी कोई नीति है। लेकिन भले ही किसी सुगठित रूप में नीति न हो लेकिन हर समाचार संगठन मोटे तौर पर हर मुद्दे पर किसी नीति पर तो चलता ही है और अनेक कारक इस नीति का निर्धारण करते हैं। अनेक संपादक इसे ‘संपादकीय लाइन’ कहते हैं। मसलन समाचारपत्रों में संपादकीय होते हैं जिन्हें संपादक और उनके सहायक संपादक लिखते हैं। संपादकीय बैठक में तय किया जाता है कि किसी विशेष दिन कौन-कौन सी ऐसी घटनाएं हैं जो संपादकीय हस्तक्षेप के योग्य हैं। इन विषयों के चयन में काफी विचार-विमर्श होता है।  फिर उनके निर्धारण के बाद क्या संपादकीय स्टैंड हो क्या लाइन ली जाए यह भी तय किया जाता है और विचार-विमर्श के बाद संपादक तय करते हैं क्या रुख होगा या  क्या लाइन होगी। यही स्टैंड और लाइन एक समाचारपत्र की नीति भी होती है।

वैसे तो एक समाचारपत्र में अनेक तरह के लेख और समाचार छपते हैं और आवश्यक नहीं है कि वे संपादकीय नीति के अनुकूल हों। समाचारपत्र में विविधता और बहुलता का होना अनिवार्य है। संपादकीय एक समाचारपत्र की विभिन्न मुद्दों पर नीति को प्रतिबिंबित करते हैं। निश्चय ही समाचार कवरेज और लेखों-विश्लेषणों में संपादकीय की नीति का पूरा का पूरा अनुसरण नहीं होता लेकिन कुल मिलाकर संपादकीय नीति का प्रभाव किसी भी समाचारपत्र के समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है। अगर कोई समाचारपत्र भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का कट्टïर समर्थक है तो वह उन तमाम समाचारों को अधिक महत्त्व देने की कोशिश करेगा जो उसके पक्ष में जाती हैं। समाचारों का चयन और डिस्पले भी समाचारपत्र की नीतियों को प्रतिबिंबित करते हैं। अक्सर ऐसा देखने में आता है कि संपादकीय में कोई समाचारपत्र किसी खास राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक पार्टी या गठजोड़ के करीब हो तो समाचारों के चयन और प्रस्तुतीकरण में भी यह इन्हीें के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है।

समाचार संगठन की नीतियों से किसी भी समाचार संगठन की समाचार की अवधारणाएं निर्धारित होती हैं। इसी से उसकी संपादकीय-समाचारीय सामग्री का चरित्र और स्वरूप तय होता है। इसके बाद स्थान और पत्रकारीय महत्त्व के आधार पर किसी समाचार संगठन में समाचार अपना स्थान पाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि सैद्धांतिक रूप से किसी समाचारपत्र के संपादकीय ही इसकी स्टैंड, लाइन या नीति को दर्शाते हैं और बाकी लेख, विश्लेषण और बाइलाइन वाले समाचारों में वैचारिक विविधता होती है। एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में तमाम विविधताओं को प्रतिबिंबित करने के बावजूद समाचार संगठन अपनी संपादकीय नीति के अनुसार ही समाचारों को भी छापता है।

निश्चय ही समाचार संगठन किसी व्यवस्था के तहत या इसके भीतर ही काम करते हैं। एक दृष्टिï से मुख्यधारा के समाचार संगठन किसी भी व्यवस्था की प्रभुत्वकारी और शासक विचारधारा के ही प्रवक्ता होते हैं और इस दायरे के भीतर ही राजनीतिक विविधता का सृजन होता है। इसके अलावा समाचार संगठन के स्वामित्व से भी इसकी नीतियां तय होती हैं। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में समाचार संगठनों के स्वामित्व के संकेंद्रीकरण के प्रभावों पर काफी चर्चा हो रही है। समाचार सामग्री और प्रस्तुतीकरण पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह तो तय है कि कोई भी समाचार संगठन अपने मालिक और उसके विचारों के खिलाफ नहीं जा सकता।

उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापन उद्योग का दबाव भी काफी बढ़ गया है। मुक्त बाजार व्यवस्था के तेज विस्तार तथा उपभोक्तावाद के फैलाव के साथ विज्ञापन उद्योग का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। समाचार संगठन अब कारोबार और उद्योग हो गए हैं और विज्ञापन उद्योग पर उनकी निर्भरता बहुत बढ़ चुकी है। इसका भी संपादकीय/समाचारीय सामग्री पर गहरा असर पड़ रहा है। समाचार संगठन पर अन्य आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी होते हैं। किसी छोटे स्थान से छपने वाला कोई समाचारपत्र वहां के स्थानीय माफिया के खिलाफ कुछ नहीं छाप सकता। इसी तरह के कई अन्य दबाव भी इसकी नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं। इसके बाद जो स्पेस या स्थान बचता है वह पत्रकारिता और पत्रकारों की स्वतंत्रता का है। यह उनके प्रोफेशनलिज्म पर निर्भर करता है कि वे इस स्पेस का किस तरह सबसे प्रभावशाली ढंग से उपयोग कर पाते हैं। इस पत्रकारीय स्पेस पर भी निरंतर हमले होते रहते हैं और इसे छोटा करने का प्रयास होता रहता है।

पत्रकार और उसके प्रोफेशनलिज्म के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह इस स्पेस की हिफाजत करे और इसका अधिकतम इस्तेमाल से इसके विस्तार का निरंतर प्रयास करता रहे। कई बार किन्हीं खास परिस्थितियों में भी यह स्पेस कम-ज्यादा होता रहता है। उन्माद की परिस्थितियों में पत्रकारीय स्वतंत्रता का जबर्दस्त ह्रïास होता है चाहे वह किसी भी तरह का उन्माद क्यों न हो। 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका का उदाहरण सबसे सामने है जहां उग्र राष्टï्रवाद इस कदर हावी हो गया था कि मीडिया में असहमति का स्थान बहुत छोटा हो गया था। अनेक अवसरों पर सामाजिक वातावरण भी संपादकीय सामग्री को प्रभावित करता है। सामाजिक तनाव की स्थिति में यह प्रभाव अधिक गहरा हो जाता है।

महत्वपूर्ण जानकारियां

अनेक ऐसी सूचनाएं भी समाचारीय होती हैं जिनका समाज के किसी विशेष तबके के लिए कोई महत्त्व हो सकता है। ये लोगों की तात्कालिक सूचना आवश्यकताएं भी हो सकती हैं। मसलन स्कूल कब खुलेंगे, किसी खास कॉलोनी में बिजली कब बंद रहेगी, पानी का दबाव कैसा रहेगा आदि। इस संदर्भ में कुड क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनमें सूचनाएं देने के अपने ही खतरे हैं। कम से कम चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक बार कुछ तरह की सूचनाएं गलतफहमियां पैदा करती हैं। यह सर्वविदित है कि अनुसंधान अनेक तरह की अवधारणाओं पर आधारित होते हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर अधकचरे ज्ञान को इसमें निष्कर्ष के तौर पर पेश नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा दुर्घटनाओं के मामले में भी हताहतों के नाम की जानकारी देने का अपना ही महत्त्व है। हालांकि अधिकांश मौकों पर नाम पता करना मुश्किल काम होता है।

समाचार लेखन

परंपरागत रूप से बताया जाता है कि समाचार उस समय ही पूर्ण कहा जा सकता है जब वह कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे सभी प्रश्नों या इनके उत्तर को लेकर लोगों की जिज्ञासा को संतुष्टï करता हो। हिंदी में इन्हें छह ककार के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी में इन्हें पांच ‘डब्ल्यू’, हू, वट, व्हेन, व्हाइ वेह्अर और एक ‘एच’ हाउ कहा जाता है। इन छह सवालों के जवाब में किसी घटना का हर पक्ष सामने आ जाता है लेकिन समाचार लिखते वक्त इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तलाशना और पाठकों तक उसे उसके संपूर्ण अर्थ में पहुंचाना सबसे बड़ी चुनौती का कार्य है। यह एक जटिल प्रक्रिया है। पत्रकारिता और समाचारों को लेकर होने वाली हर बहस का केंद्र यही होता है कि इन छह प्रश्नों का उत्तर क्या है और कैसे दिया जा रहा है। समाचार लिखते वक्त भी इसमें शामिल किए जाने वाले तमाम तथ्यों और अंतर्निहित व्याख्याओं को भी एक ढांचे या संरचना में प्रस्तुत करना होता है।

समाचार संरचना

सबसे पहले तो समाचार का ‘इंट्रो’ होता है। यह कह सकते हैं कि यह असली समाचार है जो चंद शब्दों में पाठकों को बताता है कि क्या घटना घटित हुई है। इसके बाद के पैराग्राफ में इंट्रो की व्याख्या करनी होती है। इंट्रो में जिन प्रश्नों का उत्तर अधूरा रह गया है उनका उत्तर देना होता है। इसलिए समाचार लिखते समय इंट्रों के बाद व्याख्यात्मक जानकारियां देने की जरूरत होती है। इसके बाद विवरणात्मक या वर्णनात्मक जानकारियां दी जानी चाहिए। घटनास्थल का वर्णन करना, इस दृष्टिï से यह कहा जा सकता है कि यह घटना के स्वभाव पर निर्भर करता है कि विवरणात्मक जानकारियों का कितना महत्त्व है। मसलन अगर कहीं कोई उत्सव हो रहा हो जिसमें अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम चल रहे हों तो निश्चय ही इसका समाचार लिखते समय घटनास्थल का विवरण ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। अगर कोई राजनीतिज्ञ प्रेस सम्मेलन करता है तो इसमें विवरण देने (प्रेस सम्मेलन में व्याप्त माहौल के बारे में बताने) के लिए कुछ नहीं होता और सबसे महत्त्वपूर्ण यही होता है कि राजनीतिज्ञ ने जो कुछ भी कहा और एक पत्रकार थोड़ा आगे बढक़र इस बात की पड़ताल कर सकता है कि राजनीतिज्ञ का प्रेस सम्मेलन बुलाकर यह सब कहने के पीछे क्या मकसद था जो उसने मीडिया (यानि जनता) के साथ शेयर की और जिन बातों को उसने सार्वजनिक किया।

इसके बाद अनेक ऐसी जानकारियां होती हैं जो ‘पांच डब्ल्यू और एक एच’ को पूरा करने के लिए आवश्यक होती हैं और जिन्हें समाचार लिखते समय पहले के तीन खंडों में शामिल नहीं किया जा सका। इसमें पहले तीन खंडों से संबंधित अतिरिक्त जानकारियां दी जाती हैं। हर घटना को एक सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए इसका पृष्ठïभूमि में जाना भी आवश्यक होता है। ‘क्यो’ं और ‘कैसे’ का उत्तर देने के लिए घटना के पीछे की प्रक्रिया पर भी निगाह डालनी आवश्यक हो जाती है। इसके अलावा पाठक इस तरह की घटनाओं की पृष्ठïभूमि भी जानने की प्रति जिज्ञासु होते हैं। मसलन अगर किसी नगर में असुरक्षित मकान गिरने से कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है तो यह भी प्रासंगिक ही होता है कि पाठकों को यह भी बताया जाए कि पिछले एक वर्ष में इस तरह की कितनी घटनाएं हो चुकी हैं और कितने लोग मरे। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए और वे कहां तक सफल रहे हैं और अगर सफल नहीं हुए तो क्यों? यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि नगर की कितनी आबादी इस तरह के असुरक्षित घरों में रह रही है और इस स्थिति में किस तरह के खतरे निहित हैं आदि।

एक समाचार की संरचना को मोटे तौर पर इन भागों में बांट सकते हैं :

  • इंट्रो
  • व्याख्यात्मक जानकारियां
  • विवरणात्मक जानकारियां
  • अतिरिक्त जानकारियां
  • पृष्ठïभूमि

एक समाचार की संरचना को दूसरे रूप में तीन मुख्य खंडों में भी विभाजित कर सकते हैं। पहला तो इंट्रो कि ‘क्या हुआ’ इसके बाद अन्य प्रश्नों के उत्तर दिए जा सकते हैं जो ‘क्या हुआ’ को स्पष्टï करते हों। फिर जो कुछ बचा और समाचार को पूरा करने के लिए आवश्यक है उसे आखिरी खंड में शामिल कर सकते हैं।

भाषा और शैली

इसके अलावा समाचार लेखन और संपादन के बारे में जानकारी होना तो आवश्यक है। इस जानकारी को पाठक तक पहुंचाने के लिए एक भाषा की जरूरत होती है। आमतौर पर समाचार लोग पढ़ते हैं या सुनते-देखते हैं वे इनका अध्ययन नहीं करते। हाथ में शब्दकोष लेकर समाचारपत्र नहीं पढ़े जाते। इसलिए समाचारों की भाषा बोलचाल की होनी चाहिए। सरल भाषा, छोटे वाक्य और संक्षिप्त पैराग्राफ। एक पत्रकार को समाचार लिखते वक्त इस बात का हमेशा ध्यान रखना होगा कि भले ही इस समाचार के पाठक/उपभोक्ता लाखों हों लेकिन वास्तविक रूप से एक व्यक्ति अकेले ही इस समाचार का उपयोग करेगा।

इस दृष्टिï से जन संचार माध्यमों में समाचार एक बड़े जन समुदाय के लिए लिखे जाते हैं लेकिन समाचार लिखने वाले को एक व्यक्ति को केंद्र में रखना होगा जिसके लिए वह संदेश लिख रहा है जिसके साथ वह संदेशों का आदान-प्रदान कर रहा है। फिर पत्रकार को इस पाठक या उपभोक्ता की भाषा, मूल्य, संस्कृति, ज्ञान और जानकारी का स्तर आदि आदि के बारे में भी मालूम होना ही चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि यह पत्रकार और पाठक के बीच सबसे बेहतर संवाद की स्थिति है। पत्रकार को अपने पाठक समुदाय के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दरअसल एक समाचार की भाषा का हर शब्द पाठक के लिए ही लिखा जा रहा है और समाचार लिखने वाले को पता होना चाहिए कि वह जब किसी शब्द का इस्तेमाल कर रहा है तो उसका पाठक वर्ग इससे कितना वाकिफ है और कितना नहीं।

उदाहरण के लिए अगर कोई पत्रकार ‘इकनॉमिक टाइम्स’ जैसे अंग्रेजी के आर्थिक समाचारपत्र के लिए समाचार लिख रहा है तो उसे मालूम होता है कि इस समाचारपत्र को किस तरह के लोग पढ़ते हैं। उनकी भाषा क्या है, उनके मूल्य क्या हैं, उनकी जरूरतें क्या हैं, वे क्या समझते हैं और क्या नहीं? ऐसे अनेक शब्द हो सकते हैं जिनकी व्याख्या करना ‘इकनॉमिक टाइम्स’ के पाठकों के लिए आवश्यक न हो लेकिन अगर इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल ‘नवभारत टाइम्स’ में किया जाए तो शायद इनकी व्याख्या करने की जरूरत पड़े क्योंकि ‘नवभारत टाइम्स’ के पाठक एक भिन्न सामाजिक समूह से आते हैं। अनेक ऐसे शब्द हो सकते हैं जिनसे नवभारत टाइम्स के पाठक अवगत हों लेकिन इन्हीं का इस्तेमाल जब ‘इकनॉमिक टाइम्स’ में किया जाए तो शायद व्याख्या करने की जरूरत पड़े क्योंकि उस पाठक समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक पृष्ठïभूमि भिन्न है।

अंग्रेजी भाषा में अनेक शब्दों का इस्तेमाल मुक्त रूप से कर लिया जाता है जबकि हिंदी भाषा का मिजाज मीडिया में इस तरह के गाली-गलौज के शब्दों को देखने का नहीं है भले ही बातचीत में इनका कितना ही इस्तेमाल क्यों न हो। भाषा और सामग्री के चयन में पाठक या उपभोक्ता वर्ग की संवेदनशीलताओं का भी ध्यान रखा जाता है और ऐसी सूचनाओं के प्रकाशन या प्रसारण में विशेष सावधानी बरती जाती है जिससे हमारी सामाजिक एकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हो।

समाचार लेखन के सिद्धांत

पहले हमने पांच ‘डब्ल्यू’ और एक ‘एच’ यानी छह ककारों की चर्चा की है। दरअसल, समाचार लेखन में घटनाओं और इनसे संबंधित तथ्यों के चयन की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। देश-दुनिया में रोज हजारों-लाखों घटनाएं घटती हैं लेकिन इनमें से कुछ ही समाचार बन पाती हैं। यूं तो हमने किसी घटना के समाचारीय होने के कारकों का भी जिक्र किया है लेकिन समाचार जगत की चयन की प्रक्रियाएं इतनी विविध, कठिन और जटिल हैं कि उनके कारणों को स्पष्टï रूप से चिन्ह्ति करना लगभग असंभव है।

समाचार लेखन के बारे में भी मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि जब हम किसने, क्या, कब और कहां का उत्तर दे रहे होते हैं तो कहा जा सकता है कि यहां तथ्य ही केंद्र में हैं। हालांकि यहां इस बात का उल्लेख करना भी जरूरी है कि यह भी एक अहम मसला है कि एक पत्रकार किन तथ्यों का चयन करता है और किस आधार पर यह चयन किया जाता है। कौन सी अवधारणाएं और मूल्य तथ्यों के चयन की इस प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

लेकिन जब एक पत्रकार (या कोई भी) क्यों और कैसे का उत्तर देता है तो यहां समाचार लेखन में व्याख्या के तत्त्व का प्रवेश हो जाता है। चंद घटनाएं ऐसी होती हैं कि उनमें सपाट तथ्य होते हैं और संभव है कि ‘क्यों’ और ‘कैसे’ में भी दृष्टिïकोण (परसेप्शन) में कोई भिन्नता न हो। लेकिन राजनीति, अर्थशास्त्र और समाज से संबंधित अनेक ऐसे मसले हैं जिन्हें कोई भी व्यक्ति किसी तटस्थ स्थान से देख ही नहीं सकता क्योंकि ऐसा कोई तटस्थ स्थान होता ही नहीं है। वह एक मूल्यबोध के साथ ही इन मसलों को देखता है और उसकी निगाह स्वयं अपने दृष्टिïकोण और मूल्यों तथा पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है। कहा जाता है कि आमतौर पर हम पहले देखकर परिभाषित नहीं करते हैं बल्कि पहले हम परिभाषित करते हैं और फिर देखते हैं। इस तरह हर यथार्थ की एक छवि हमारे मस्तिष्क में होती है और हम इस यथार्थ को अपनी इस छवि के अनुरूप ही देखने पर अड़े हो सकते हैं।

इस तरह संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि सबसे पहले तो हजारों-लाखों घटनाओं में से चंद घटनाओं को समाचार के रूप से निर्धारित कर यह तय किया जाता है कि लोगों को किन मुद्दों के बारे में सोचना चाहिए अर्थात जो मुद्दे समाचार हैं वही ज्वलंत हैं और उन्हीं पर चर्चा और बहस होनी चाहिए। फिर इन समाचारों में ही तथ्यों का चयन और व्याख्या इस तरह से की जाती है कि उसके सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर ही रोशनी डाली जा सकती है। इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि मीडिया लोगों को यह भी बताता है कि उस विषय के बारे में किस तरह सोचना चाहिए। इसलिए समाचारों के चयन और फिर समाचारों में शामिल किए जाने वाले तथ्यों के चयन में एक पत्रकार को इस बात से पूरी तरह से सचेत होना चाहिए कि इन दो कार्यों के कारण वह एजेंडा का निर्धारण कर रहा है। समाज और देश के सामने उन ‘ज्वलंत मुद्दों’ को पेश कर रहा है और इस पर कैसे सोचा जाए यह भी बता रहा है। लेकिन इस प्रक्रिया में अगर लोगों के वास्तविक मसलों और मीडिया के मसलों के बीच खाई अधिक चौड़ी होगी, तो मीडिया और समाचार अपनी साख खो बैठेंगे। साख को बचाना समाचार लेखन का सर्वोत्तम सिद्धांत है। समाचारों की साख को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन करना जरूरी है।

  • यथार्थता (Accuracy)
  • वस्तुपरकता (Objectivity)
  • निष्पक्षता (Impartiality)
  • संतुलन (Balance)
  • स्रोत (Attribution-Sourcing)

जैसी कि पहले चर्चा की गई है कि तथ्यों का चयन ही निर्धारित करता है कि समाचार यथार्थ का कैसा प्रतिबिंब कर रहे हैं। फिर जब हम इसकी व्याख्या कर रहे होते हैं तो स्वयं हमारे अपने मूल्य और प्राथमिकताएं भी घटना के, हमारे समाचारीय मूल्यांकन और प्रस्तुतीकरण को प्रभावित करती हैं। वे तथ्य हमें अधिक समाचारीय लगते हैं जो हमारे अपने दृष्टिïकोण या परसेप्शन से मेल खाते हैं और जो तथ्य हमारे दृष्टिïकोण या परसेप्शन को झुठलाते हों उन्हें स्वीकर करने में हमें एक मानसिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यथार्थ से वास्ता पडऩे तथा स्वयं अपने अनुभव के साथ हमारे दृष्टिïकोण भी बदलते हैं। इनका बदलना भी एक गतिशील प्रक्रिया है और एक प्रोफेशनल पत्रकार में तो यह गतिशीलता आवश्यक होती है। समाज के विभिन्न तबकों में इस गतिशीलता का स्तर भिन्न होता है। कुछ तबके परिवर्तन को आसानी से स्वीकार कर लेते हैं और कुछ काफी रूढि़वादी हो सकते हैं जो अपने दृष्टिïकोण को आसानी से परिवर्तित नहीं करते।

यथार्थता

एक आदर्श रूप में मीडिया और पत्रकारिता यथार्थ का प्रतिबिंब मात्र हैं। इस तरह समाचार यथार्थ की पुनर्रचना करता है। यह अपने आप में  एक जटिल प्रक्रिया है और आज तो यहां तक कहा जाता है कि समाचार संगठनों द्वारा सृजित यथार्थ की छवियां भ्रम पैदा करती हैं। लेकिन सच यही है कि मानव यथार्थ की नहीं, यथार्थ की छवियों की दुनिया में रहता है। किसी भी यथार्थ के बारे में हमें जो भी जानकारियां प्राप्त होती हैं उसी के अनुसार हम उस यथार्थ की एक छवि अपने मस्तिष्क में बना लेते हैं और यही छवि हमारे लिए वास्तविक यथार्थ का काम करती है। एक तरह से हम सूचना सृजित छवियों की दुनिया में रहते हैं।

संचार के प्रारंभ से ही ऐसा होता आया है। जो कुछ भी मानव ने देखा नहीं है और जिसके होने का उसे अहसास है उसके बारे में एक सूचना छवि उसके पास होती है। दरअसल, यथार्थ को उसकी संपूर्णता में प्रतिबिंबित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसे तथ्यों का चयन किया जाए जो इसकी संपूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाचार में हम किसी भी यथार्थ को उसके बारे में अत्यंत सीमित चयनित सूचनाओं और तथ्यों के माध्यम से ही सृजित करते हैं। इसलिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किसी भी विषय के बारे में समाचार लिखते वक्त हम किन सूचनाओं और तथ्यों का चयन करते हैं। चुनौती यही है कि ये सूचनाएं और तथ्य केंद्रीय हों और संपूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व करते हों अर्थात तथ्यों का प्रतिनिधित्वपूर्ण होना अत्यंत आवश्यक है।

इस संदर्भ में एक भारतीय लोक कथा तथ्यात्मकता और सत्यात्मकता को काफी अच्छे ढंग से उजागर करती है। छह अंधे और एक हाथी की कहानी। छह अंधों में बहस छिड़ गई कि हाथी कैसा होता है और फिर उन्होंने इस बहस को खत्म करने के लिए स्वयं हाथी को छूकर यह तय करने का निश्चय किया कि हाथी कैसा होता है। एक अंधे ने हाथी के पेट को छुआ और कहा यह ‘‘दीवार की तरह है।’’ दूसरे ने उसके दांत को छुआ और कहा ‘‘नहीं यह तलवार की तरह है।’’ तीसरे के हाथ उसकी सूढ़ आई और उसने कहा ‘‘यह तो सांप की तरह है।’’ चौथे ने उसका पैर छुआ और चिल्लाया तुम पागल हो ‘‘यह पेड़ की तरह है।’’ पांचवें को हाथी का कान हाथ आया और उसने कहा, ‘‘तुम सब गलत हो यह पंखे की तरह है।’’ छठे अंधे ने उसकी पूंछ पकड़ी और बोला, ‘‘बेवकूफों हाथी दीवार, तलवार, सांप, पेड़, पंखे में से किसी भी तरह का नहीं होता यह तो एक रस्सी की तरह है।’’ हाथी तो गया और छह अंधे आपस में लड़ते रहे। हरेक अपने ‘तथ्यों’ के आधार पर हाथी की अपनी ‘छवि’ पर अडिग था।

तथ्य या सूचनाएं जो हर अंधे ने छूकर प्राप्त किए वे अपने आप में सच थे हाथी का कान पंखे जैसा होता है लेकिन हाथी तो पंखे जैसा नहीं होता। इस तरह हम कह सकते हैं कि तथ्य अपने आप में तो सत्य ही होते हैं लेकिन अगर किसी संदर्भ में उनका प्रयोग किया जा रहा हो तो उनका पूरे विषय के संदर्भ में प्रतिनिधित्वपूर्ण होना आवश्यक है। उसी स्थिति में तथ्य यथार्थ की सही तस्वीर प्रतिबिंबित कर पाएंगे। इसके अलावा समाचार और उनके यथार्थ को लेकर काफी कुछ कहा और लिखा गया है। कैनेथ ब्रुक ने तो 1935 में कहा था कि किसी एक पहलू पर केंद्रित होने का मतलब दूसरे पहलू की अनदेखी भी है। समाचार लेखन के संदर्भ में अपने आप को इन तथ्यों की सत्यता के दायरे में नहीं बांध सकते जो अपने आप में सत्य ही होते हैं बल्कि हमारे सामने चुनौती होती हैं सत्यपूर्ण तथ्यों के माध्यम से संपूर्ण यथार्थ को प्रतिबिंबित करने की।

एक नस्ली, जातीय या धार्मिक हिंसा की घटना का समाचार कई तरह से लिखा जा सकता है। इसे तथ्यपरक ढंग से इस तरह भी लिखा जा सकता है कि किसी एक पक्ष की शैतान की छवि सृजित कर दी जाए और दूसरे पक्ष को इसके कारनामों का शिकार। इस घटना के किसी भी एक पक्ष को अधिक उजागर कर एक अलग ही तरह की छवि का सृजन किया जा सकता है। फिर इस घटना में आम लोगों के दु:ख-दर्दों को उजागर कर इस तरह की हिंसा के अमानवीय और जघन्य चेहरे को भी उजागर किया जा सकता है। एक रोती विधवा, बिलखते अनाथ बच्चे या तो मात्र विधवा और अनाथ बच्चें हैं जिनकी यह हालत जातीय या धार्मिक हिंसा ने की या फिर ये इसलिए विधवा और अनाथ हैं क्योंकि ये किसी खास जाति या धर्म में हैं। इस तरह समाचार को वास्तव में यथार्थ के करीब रखने के लिए एक पत्रकार को प्रोफेशनल और बौद्धिक कौशल में एक स्तर का महारथ हासिल करना जरूरी है। इस तरह की तमाम घटनाओं को सतह पर नहीं एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर इनका मूल्यांकन करना पड़ेगा। वरना प्रतिनिधित्वपूर्ण तथ्यों का चयन करना मुश्किल हो जाएगा।

वस्तुपरकता

वस्तुपरकता को भी इस तरह की तथ्यपरकता से ही आंकना आवश्यक है। जैसी कि पहले ही चर्चा की गयी है कि हम किस घटना का समाचार के रूप में चयन करते हैं और दूसरा इस घटना से संबंधित ढेर सारे तथ्यों में से किन तथ्यों को समाचार गठन की प्रक्रिया में चयनित करते हैं या अस्वीकार करते हैं लेकिन उस प्रक्रिया में किस आधार पर और क्यों हम चंद तथ्यों को वस्तुपरक मान लेते हैं? वस्तुपरकता और यथार्थता के बीच काफी समान क्षेत्र भी है लेकिन दोनों विचारों के अंतर को भी समझना जरूरी है। एक होते हुए भी ये दोनों अलग विचार हैं। यथार्थता का संबंध जहां अधिकाधिक तथ्यों से है वहीं वस्तुपरकता का संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति तथ्यों को कैसे देखता है। किसी विषय के बारे में हमारे मस्तिष्क में पहले से सृजित छवियां हमारे समाचार मूल्यांकन की क्षमता को प्रभावित करती हैं और हम इस यथार्थ को इन छवियों के अनुरूप देखने का प्रयास करते हैं।

हमारे मस्तिष्क में अनेक मौकों पर इस तरह की छवियां वास्तविक भी हो सकती हैं और वास्तविकता से दूर भी हो सकती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जहां तक यथार्थता के चित्रण का संबंध है यह प्रोफेशनल कौशल की ओर अधिक झुका हुआ है और वस्तुपरकता की अवधारणा का संबंध हमारे मूल्यों से अधिक है। हमें ये मूल्य हमारे सामाजिक माहौल से मिलते हैं। बचपन से ही हम स्कूल में, घर में, सडक़ चलते हर कदम हर पल सूचनाएं प्राप्त करते हैं और दुनिया भर के स्थानों, लोगों, संस्कृतियों आदि सैकड़ों विषयों के बारे में अपनी एक धारणा या छवि बना लेते हैं। वस्तुपरकता का तकाजा यही है कि किस हद तक हम इस छवि को वास्तविकता के सबसे करीब ले जा पाते हैं। कुछ सत्य ऐसे हैं जिन पर एक विश्वव्यापी सहमति हो सकती है लेकिन ऐसे तमाम सच जो हमारे दृष्टिïकोण से निर्धारित होते हैं उन पर यह पैमाना लागू नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिï से दुनिया हमेशा सतरंगी और विविध रहेगी। इसे देखने के दृष्टिïकोण भी अनेक होंगे। इसलिए कोई भी समाचार सबके लिए एक साथ वस्तुपरक नहीं हो सकता। एक ही समाचार किसी के लिए वस्तुपरक हो सकता है और किसी के लिए पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकता है।

हमें समाचार लेखन के हर सिद्धांत और अवधारणा के संदर्भ में बार-बार इस बात पर केंद्रित होना पड़ेगा कि देश और दुनिया भर की हजारों-लाखों घटनाओं से चंद घटनाओं को किस आधार पर समाचार योग्य माना जाता है और फिर समाचार योग्य माने जानी वाली घटनाएं जिस रूप में पाठकों या दर्शकों/श्रोताओं तक पहुंचती हैं तो इनमें किन तथ्यों का समावेश होता है? घटना के किन पक्षों को उछाला जाता है और किन पक्षों की अनदेखी की जाती है? ऐसा क्यों होता है और किया जाता है यह भी एक जटिल सवाल है। तात्कालिक तौर पर तो इसे इस पैमाने पर ही परखा जा सकता है कि किसी खास घटना के समाचार बनने और इसके किसी खास पक्ष को अहमियत मिलने से किसके हितों की पूर्ति होती है। हितों की पूर्ति का पैमाने का इस्तेमाल पत्रकारिता में अनेक रुझानों के मूल्यांकन के लिए किया जा सकता है।

निष्पक्षता

वैसे तो निष्पक्षता सीधे-सीधे अपना अर्थ व्यक्त करता है। लेकिन निष्पक्षता को तटस्थता के रूप में देखना पत्रकारिता के पेशे में एक गंभीर भूल होगी। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी राष्टï्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका है। इसलिए पत्रकारिता और समाचार सही और गलत, अन्याय और न्याय जैसे मसलों के बीच तटस्थ नहीं हो सकते बल्कि वे निष्पक्ष होते हुए सही और न्याय के साथ होते हैं।

जब हम समाचारों में  निष्पक्षता की बात करते हैं तो इसमें न्यायसंगत होने का तत्त्व अधिक अहम होता है। आज मीडिया एक बहुत बड़ी ताकत है। एक ही झटके में यह किसी पर बट्टïा लगाने की ताकत रखता है। इसलिए किसी के बारे में समाचार लिखते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि कहीं किसी को अनजाने में ही बिना सुनवाई के फांसी पर तो नहीं लटकाया जा रहा है। भ्रष्टïाचार और इस तरह के आचरण के मामलों में इस बात का विशेष महत्त्व है। समाचार की वजह से किसी व्यक्ति के साथ अन्याय न हो जाए, इसकी गारंटी करने के लिए निष्पक्षता की अहम भूमिका है।

इसका एक आयाम यह भी है कि किसी को भी संदर्भ से काटकर उद्धृत न किया जाए। अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि प्रमुख व्यक्तियों से काल्पनिक प्रश्न पूछे जाते हैं और उनके उत्तर ही समाचारों की हेडलाइन बन जाते हैं। एक काल्पनिक उदाहरण लें: किसी राजनीतिक दल में विभाजन के आसार नहीं हैं और इस दल के अध्यक्ष से पूछा जाता है ‘‘आप अपने दल में विभाजन को रोकने के लिए क्या उपाय कर रहे हैं?’’ स्वाभाविक तौर पर दल का अध्यक्ष इसका खंडन करेगा और अगले दिन अगर अखबार में यह सुर्खी हो ‘‘दल में विभाजन नहीं’’ तो पाठकों पर इसका क्या असर पड़ेगा? कहीं न कहीं उनके मस्तिष्क में यह बात तो आ ही जाएगी कि इस दल में ऐसा कुछ होने जा रहा था। यानि सब कुछ ठीक नहीं है। यह कहा जा सकता है कि इस तरह का समाचार लेखन निष्पक्ष नहीं है। यह तो एक बहुत ही सरल और स्पष्टï काल्पनिक उदाहरण था लेकिन समाचारों की वास्तविक दुनिया में निष्पक्षता का पैमाना लागू करने के लिए अत्यंत पैनी नजर होना आवश्यक है। फिर, निष्पक्षता को यथार्थता, वस्तुपरकता, सूचना स्रोत और संतुलन से काटकर नहीं देखा जा सकता है।

संतुलन

निष्पक्षता की अगली कड़ी संतुलन है। आमतौर पर मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि समाचार कवरेज संतुलित नहीं है यानि यह किसी एक पक्ष की ओर झुका है। हम समाचार में संतुलन के सिद्धांत की बात करते हैं तो वह इस तरह के व्यापक संतुलन से थोड़ा हटकर है। आमतौर पर संतुलन की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहां किसी घटना में अनेक पक्ष शामिल हों और उनका आपस में किसी न किसी रूप में टकराव हो। उस स्थिति में संतुलन का तकाजा यही है कि सभी संबद्ध पक्षों की बात समाचार में अपने-अपने समाचारीय वजन के अनुसार स्थान पाए।

समाचार में संतुलन का महत्त्व तब कहीं अधिक हो जाता है जब किसी पर किसी तरह के आरोप लगाए गए हों या इससे मिलती-जुलती कोई स्थिति हो। उस स्थिति में हर पक्ष की बात समाचार में अभिव्यक्त होनी चाहिए अन्यथा यह एकतरफा चरित्र हनन का हथियार बन सकता है। व्यक्तिगत किस्म के आरोपों में आरोपित व्यक्ति के पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। लेकिन यह स्थिति तभी हो सकती है जब आरोपित व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में है और आरोपों के पक्ष में पक्के सबूत नहीं हैं या उनका सही साबित होना काफी संदिग्ध है। अगर कोई ‘‘सार्वजनिक व्यक्तित्व’’ बलात्कार जैसा अपराध कर दे और मामला साफ-साफ सबके सामने हो तो पत्रकार को भी अपने विवेक से ही संतुलन के सिद्धांत का पालन करना पड़ेगा। कुख्यात अपराधियों का मामला इससे अलग है। संतुलन के नाम पर समाचार मीडिया इस तरह के तत्त्वों का मंच नहीं बन सकता जो कई मौकों पर देखने को मिलता है। कभी-कभार किसी समाचार से इस तरह के तत्त्वों को लाभ पहुंचता है। इसे रोकना भी जरूरी है।

संतुलन का सिद्धांत अनेक सार्वजनिक मसलों पर व्यक्त किए जाने वाले विचारों और दृष्टिïकोणों पर तकनीकी ढंग से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अनेक मसलों पर प्रतिक्रिया  व्यक्त करने में राजनीतिक पार्टियां समय लेती हैं। आशय यह है कि राजनीतिक आलोचना के विषयों पर संतुलन का सिद्धांत उस तरह लागू नहीं किया जाना चाहिए जैसा व्यक्तिगत आरोपों के मामले में किया जाना चाहिए। राजनीतिक संतुलन तत्काल या रोजमर्रा की चीज नहीं है बल्कि एक समाचार संगठन को अपने कवरेज की संपूर्णता में संतुलित होना चाहिए।

संसदीय और राज्य विधायिकाओं की रिपोर्टिंग में भी संतुलन का ध्यान रखा जाना चाहिए। एक लोकतांत्रिक समाज में  समाचार माध्यकों को सभी तरह की राजनीतिक धाराओं के विचारों और विभिन्न मुद्दों पर उनके स्टैंड को प्रतिबिंबित करना चाहिए। इसके जरिए ही लोग प्रतियोगी राजनीति और इसमें भाग लेने वाली शक्तियों के बारे में सही और वैज्ञानिक समझ पैदा कर सकते हैं। संसद और विधायिकाओं में अनेक तरह के विचार व्यक्त किए जाते हैं और इन सबको संतुलित ढंग से प्रस्तुत करना आवश्यक है। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि देश के राजनीतिक जीवन में हर दल की अपनी ताकत और हैसियत है। इस तरह के समाचारों में संतुलन कायम करते समय इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इसके अलावा सत्तापक्ष के नेताओं के कथन निश्चय ही अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वे किसी न किसी रूप में सरकार की नीतियों को प्रतिबिंबित करते हैं जिसका असर सीधे लोगों के जीवन पर पड़ता है जबकि विपक्ष के नेताओं के कथन उनकी राय, आलोचना या सुझाव भर हैं। वे राज्य की नीति नहीं हैं।

स्रोत

हर समाचार में शामिल की गई सूचना और जानकारी का कोई स्रोत होना आवश्यक है। यहां स्रोत के संदर्भ में सबसे पहले यह स्पष्टï कर देना आवश्यक है कि किसी भी समाचार संगठन के समाचार के स्रोत होते हैं और फिर उस समाचार संगठन का पत्रकार जब सूचनाएं एकत्रित करता है तो उसके अपने भी स्रोत होते हैं। इस तरह किसी भी दैनिक समाचारपत्र के लिए पी.टी.आई. (भाषा), यू. एन. आई. (यूनीवार्ता) जैसी समाचार एजेंसियां और स्वयं अपने ही संवाददाताओं और रिपोर्टरों का तंत्र समाचारों का स्रोत होता है। लेकिन चाहे समाचार एजेंसी हो या समाचारपत्र इनमें काम करने वाले पत्रकारों के भी अपने समाचार स्रोत होते हैं। यहां हम एक पत्रकार के समाचार के स्रोतों की चर्चा करेंगे। आशय यह है कि समाचार के भीतर जो सूचनाएं और जानकारियां होती हैं उनका स्रोत क्या होता है और समाचार तथा स्रोत के अंतर्संबंधों का पत्रकारिता पर क्या प्रभाव पड़ता है।

समाचार की साख को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि इसमें शामिल की गई सूचना या जानकारी का कोई स्रोत हो और वह स्रोत इस तरह की सूचना या जानकारी देने योग्य और समर्थ हो। कुछ बहुत सामान्य जानकारियां होती हैं जिनके स्रोत का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है लेकिन जैसे ही कोई सूचना ‘सामान्य’ होने के दायरे से बाहर निकलकर ‘विशिष्टï’ होती है उसके स्रोत का उल्लेख आवश्यक है। स्रोत के बिना उसकी साख नहीं होगी। उसमें विश्वसनीयता नहीं होगी। एक समाचार में समाहित हर सूचना का स्रोत होना आवश्यक है और जिस सूचना का कोई स्रोत नहीं है उसका स्रोत या तो पत्रकार स्वयं है या फिर यह एक सामान्य जानकारी है जिसका स्रोत देने की आवश्यकता नहीं है।

आमतौर पर पत्रकार स्वयं किसी सूचना का प्रारंभिक स्रोत नहीं होता। वह किसी घटना के घटित होने के समय घटनास्थल पर उपस्थित नहीं होता। वह घटना घटने के बाद घटनास्थल पर पहुंचता है इसलिए यह सब कैसे हुआ इसके लिए उसे दूसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर एक पत्रकार स्वयं अपनी आंखों से पुलिस फायरिंग में या अन्य किसी भी तरह की हिंसा में मरने वाले दस लोगों के शव देखता है तो निश्चय ही वह खुद दस लोगों के मरने का स्रोत हो सकता है। हालांकि इस बारे में कुछ लोग अलग सोच भी रखते हैं और उनका मानना है कि पत्रकार तो सूचना का वाहक भर है और हर सूचना का कोई स्रोत अवश्य होना चाहिए।

स्रोत और पत्रकारिता

पत्रकारिता और स्रोत के आपसी संबंधों से ही किसी भी समाज में पत्रकारिता का स्वरूप निर्धारित होता है। प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ ही यही है कि समाचारों के विविध और बहुल स्रोत उपलब्ध होते हैं और उनके द्वारा दी गई सूचना और जानकारी को प्रकाशित या प्रसारित करने की स्वतंत्रता होती है। किसी व्यवस्था में प्रेस की स्वतंत्रता के न होने का मतलब यही होता है कि वहां के मीडिया में छपने वाले हर समाचार और इसमें शामिल हर सूचना का स्रोत सरकारी होगा। इसलिए इस तरह के मीडिया में सरकारी पक्ष के अलावा कोई दूसरा पक्ष नहीं होगा।

मीडिया में विविधता के लिए आवश्यक है कि समाचार के स्रोत भी विविध हों। हालांकि हाल के वर्षों में मीडिया में विविधता को लेकर अनेक सवाल उठाए गए हैं और कुछ अनुसंधान इस ओर इशारा कर रहे हैं कि मीडिया में विविधता की कमी आ रही है और इसका मुख्य कारण इसकी बने-बनाए स्रोतों और पकी-पकाई सूचनाओं पर बढ़ती निर्भरता है। दूसरे खाड़ी युद्ध के दौरान जडि़त पत्रकारिता पर काफी चर्चा हुई है और इस संदर्भ में पत्रकारिता के आदर्शों और मानदंडों को लेकर सवाल उठाए गए हैं। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि पत्रकार अमेरिकी सेना के साथ संबद्ध हो गए और अमेरिकी सैनिक सूत्रों से मिली सूचनाओं के आधार पर ही वे समाचार भेजते थे। इस तरह वे अमेरिकी सेना के साथ संबद्ध या जडि़त थे। इस तरह के पत्रकार युद्ध की वस्तुपरक और संतुलित रिपोर्टिंग नहीं कर पाए क्योंकि उनका एकमात्र स्रोत अमेरिकी सेना थी और उनका इस्तेमाल काफी हद तक सैनिक प्रोपेगेंडा के लिए किया गया।

जाहिर है हर युद्ध में हर सेना प्रोपेगेंडा युद्ध को जीतना भी आवश्यक समझती है। पहले और दूसरे दोनों ही खाड़ी युद्धों के सूचना स्रोतों में विविधता न होने के कारण लोगों को युद्ध की पूरी तस्वीर नहीं मिल पाई। इन दोनों युद्धों के कवरेज में युद्ध की बर्बरता और आम लोगों के कष्टïों की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया और आधुनिक युद्ध के ‘हाइ टैक’ चरित्र पर खूब जोर दिया गया। इससे शायद मानव इतिहास में पहली बार कोई युद्ध वीडियो गेम की तरह मनोरंजन का साधन बना। वियतनाम युद्ध में मीडिया के स्रोत विविध थे और पत्रकार अपने ही बल पर अपने स्रोतों को विकसित करते थे। वियतनाम युद्ध का कवरेज खाड़ी के दोनों ही युद्धों से कहीं अधिक विविध था। हालांकि तब संचार और इसी के अनुरूप मीडिया क्रांति का आगमन नहीं हुआ था। इस तरह समाचार के स्रोत पत्रकारिता की दिशा और दशा में अहम भूमिका अदा करते हैं।

स्रोतों को नियमित कर कवरेज को नियमित किया जा सकता है। समाचारों में विविधता के लिए स्रोतों में विविधता आवश्यक है और स्रोत तभी विविध हो सकते हैं जब पत्रकार पूल या एक झुंड के रूप में रिपोर्टिंग तभी करें जब कोई अन्य विकल्प न हो।

पत्रकारिता में सूचनाओं का अंबार लगा होता है और वह हर सूचना जिसका समाचारीय मूल्य अधिक होता है वह कहीं न कहीं, किसी न किसी पर चोट करती है। इसी तरह के समाचारों को लेकर सबसे अधिक विवाद होते हैं। इस तरह की सूचनाओं के स्रोत आमतौर पर अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहते। वैसे तो आदर्श स्थिति यही है कि हर सूचना के स्रोत का समाचार में नाम हो। लेकिन अधिकांश महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील सूचनाएं ऐसे स्रोतों से प्राप्त होती हैं जो स्वयं गुमनाम रहना चाहते हैं। अमेरिका के वाटर गेट कांड में स्रोतों की अहम भूमिका से सभी वाकिफ हैं। आज तक यह पता नहीं है कि वह स्रोत कौन था जिसे ‘डीप थ्रोट’ नाम दिया गया था।

इस तरह की परिस्थितियों में एक पत्रकार का प्रोफेशनल कौशल ही है जो उसे विभिन्न सूचनाओं का मूल्यांकन करने की क्षमता प्रदान करता है। गुमनाम स्रोत अहम समाचारों का खुलासा भी करते हैं, ‘स्कूप’ देते हैं लेकिन चंद मौकों पर गलत सूचनाएं भी देते हैं, जिनका मकसद कुछ खास उद्देश्यों की पूर्ति करना होता है। ‘प्लांटेड स्टोरीज’ और ‘मिसइन्र्फोमेशन कंपेन’ इसी तरह के गुमनाम और अनाम सूत्रों के माध्यम से चलाए जाते हैं। संभव है अनेक मौकों पर सरकार या कोई भी अन्य संस्था किसी खास घटना के घटित होने के प्रभाव का जायजा लेना चाहते हों तो एक रास्ता यही है कि खबर छपने के बाद आने वाली प्रतिक्रिया देखी जाए। प्रतिक्रिया से उस घटना के वास्तविक रूप से घटित होने का मूल्यांकन किया जा सकता है।

इन दिनों राजनीतिक प्रोपेगेंडा और आर्थिक युद्ध के लिए खबरों को ‘प्लांट’ करने का सिलसिला तेज हुआ है। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब तमाम प्रोफेशनलिज्म और बौद्धिक कौशल के बावजूद एक पत्रकार को सरकार का एक उच्च पदस्थ जानकार सूत्र कोई सूचना देता है जिस पर कोई संदेह करने की भी गुंजाइश नहीं होती। लेकिन अंतत: वह  समाचार ‘प्लांटेड’ होता है- किसी खास मकसद को हासिल करने के लिए।

इस तरह के स्रोतों का आमतौर पर ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘आधिकारिक सूत्रों’, ‘राजनयिक सूत्रों’ के रूप में उल्लेख किया जाता है। इस तरह के स्रोतों से प्राप्त समाचारों के बिना तो समाचारपत्र नीरस हो जाएंगे हालांकि कभी-कभार ऐसे स्रोत मीडिया की सवारी भी कर लेते हैं।

एक पत्रकार के लिए ‘ब्रीफिंग’ का अत्यंत महत्त्व होता है। ब्रीफिंग दो तरह की होती है : ऑन द रिकॉर्ड और ऑफ द रिकॉर्ड। ‘ऑन द रिकॉर्ड’ से आशय है कि स्रोत जो भी जानकारी दे रहा है उसका समाचार में इस्तेमाल किया जा सकता है। मसलन अगर कोई राजनेता प्रेस सम्मेलन कर रहा है तो वह ‘ऑन रिकॉर्ड’ है यानि वह जो कुछ भी कह रहा है उसे प्रकाशित या प्रसारित किया जा सकता है। आमतौर पर जब कोई स्रोत पत्रकार से बातचीत करता है तो शुरू में ही यह तय हो जाना चाहिए कि वह ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ है या ‘ऑन रिकॉर्ड’ ताकि अनावश्यक विवादों से बचा जा सके। वैसे तो आमतौर पर स्रोत और पत्रकार के बीच एक विश्वास का रिश्ता होता है और एक पत्रकार अपने स्रोत की रक्षा करता है। लेकिन एक पत्रकार के लिए ‘ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारे देश में इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

दरअसल, यही वह ब्रीफिंग है जिससे स्रोत के माध्यम से एक पत्रकार ‘जानकार’ बना रहता है, उसके पास अपने ‘बीट’ की सारी सूचनाएं होती हैं, जो उसे मीडिया से तो मिलती ही हैं लेकिन इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारियां उसे ‘ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग’ से मिलती हैं। जानकारी के इस स्तर के कारण ही अगर उसकी बीट में कोई घटना होती है तो वह तत्काल उसके महत्त्व का आकलन कर लेता है और एक सही परिप्रेक्ष्य में इसकी रिपोर्टिंग कर सकता है। एक पत्रकार अगर इस तरह से ‘जानकार’ नहीं है तो यह खतरा हमेशा बना रहता है कि वह घटना के समाचारीय महत्त्व को उसकी संपूर्णता के साथ नहीं परख पाएगा या वह उस घटना को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं कर पाएगा।

विशिष्टï रिपोर्टिंग के लिए इस तरह के स्रोतों की जरूरत पड़ती है जिन्हें एक प्रक्रिया के तहत विकसित करना पड़ता है और आपसी विश्वास का संबंध पैदा करना होता है। दरअसल, किसी समाचार संगठन को एक विशेष पहचान देने में विशेष रिपोर्टिंग की अहम भूमिका होती है। इसके अलावा एक पत्रकार को ‘जानकार’ और ‘सूचित’ बने रहने के लिए उन तमाम सूचनाओं से भी अवगत रहना जरूरी है जो पहले ही किसी न किसी रूप में सार्वजनिक हो चुकी हैं। इस तरह ‘सूचित’ और ‘जानकार’ रहकर ही एक पत्रकार यह तय कर सकता है कि कौन सी सूचना और जानकारी ‘समाचार’ है और कौन सी नहीं?

तथ्य, विश्लेषण और विचार

समाचार लेखन का सबसे पहला सिद्धांत और आदर्श यह है कि तथ्यों से कोई छेड़छाड़ न की जाए। एक पत्रकार का दृष्टिïकोण तथ्यों से निर्धारित हो। जैसी कि पहले चर्चा की गई है कि तथ्यात्मकता, सत्यात्मकता और वस्तुपरकता में अंतर है। तथ्य अगर पूरी सच्चाई उजागर नहीं करते तो वे सत्यनिष्ठï तथ्य नहीं हैं। लेकिन समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है कि इसका लेखन तथ्यों पर ही केंद्रित होना चाहिए। समाचार में विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। समाचारों में अगर तथ्य प्रभुत्वकारी होते हैं तो संपादकीय में विचार अहम होते हैं। इस तरह एक तथ्यात्मक समाचार से एक विचारोत्तेजक संपादकीय के बीच अनेक तरह के पत्रकारीय लेखन शामिल हैं। मोटे तौर पर समाचार रिपोर्ट, समाचार विश्लेषण, व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग, फीचर और फीजराइज्ड रिपोर्टिंग, इंटरव्यू, टिप्पणी (कमेंट्री), लेख, समीक्षा, समीक्षात्मक लेख आदि अनेक तरह के पत्रकारीय लेखनों का उल्लेख किया जा सकता है। पत्रकारीय लेखन में हमें यह स्पष्टï होना चाहिए कि हम क्या लिख रहे हैं ताकि समाचारों, विचारों और मनोरंजन के बीच का अंतर बना रहे।

मोटे तौर पर चार बुनियादी तत्त्व हैं जिनसे तय होता है कि हम किसी तरह का पत्रकारीय लेखन कर रहे हैं :

  • तथ्य
  • विश्लेषण/व्याख्या
  • टिप्पणी
  • विचार

जैसा कि पहले भी कहा गया है ‘समाचारों’ में तथ्यों का प्रभुत्व होना चाहिए। लोगों को सूचना देने के लिए समाचार मुख्य रूप से उत्तरदायी होते हैं। मीडिया के कार्यों को इस प्रकार निर्धारित किया गया है:

  • सूचना
  • शिक्षा
  • मनोरंजन

इसके अलावा अब एजेंडा निर्धारण भी इसमें शामिल हो गया है। इससे आशय यह है कि मीडिया ही सरकार और जनता का एजेंडा तय करता है- मीडिया में जो होगा वह मुद्दा है और जो मीडिया से नदारद है वह मुद्दा नहीं रह जाता। एजेंडा निर्धारण में मीडिया की भूमिका एक अलग और व्यापक बहस का विषय है।

यहां हम मीडिया के मुख्य कार्यों पर निगाह डालें तो हम यह कह सकते हैं कि तथ्यों का सबसे अधिक संबंध समाचार से हैं और समाचार का सबसे अहम कार्य लोगों को सूचित करना है। सूचित करने की इस प्रक्रिया में लोग शिक्षित भी होते हैं और लोगों को समाचार अपने-अपने ढंग से मनोरंजन भी लग सकते हैं। दूसरे छोर पर अगर हम विचार को लें तो इसका संपादकीय और लेखों में प्रभुत्वकारी स्थान होता है और निश्चय ही हम कह सकते हैं कि विचारशील लेखन निर्णायक रूप से लोगों को शिक्षित करने में अहम भूमिका अदा करता है हालांकि इस प्रक्रिया में वह सूचित भी कर रहा है और लोगों की रुचियों के अनुसार उनके मनोरंजन का साधन भी हो सकता है।

दरअसल, मीडिया के हर उत्पाद तीनों ही कार्य करता है। अंतर केवल यह है कोई-कोई मीडिया उत्पाद एक कार्य को अधिक, तो कोई दूसरा दूसरे कार्य को अधिक करता है। इसीलिए पत्रकारिता में भी ‘पेज वन’, ‘पेज थ्री’ और ‘पेज सेवन’ धाराओं का उदय हुआ। ‘पेज वन’ पत्रकारिता से आशय समाचारों की दुनिया है। एक दैनिक समाचारपत्र के संदर्भ में लोगों को यह बताना कि पिछले 24 घंटों में देश-दुनिया की महत्त्वपूर्ण घटनाएं क्या हैं यानि लोगों को सूचित करना। ‘पेज सेवन’ पत्रकारिता से आशय है संपादकीय, लेख और अन्य तरह का वैचारिक लेखन। लोगों को घटनाओं के अर्थ से अवगत कराना यानि लोगों को शिक्षित करना।

 ‘पेज थ्री’ पत्रकारिता से आशय सेलेब्रिटी, लाइफ स्टाइल, फिल्मी पत्रकारिता से संबंधित कुछ हल्का-फुल्का, चुलबुला फीचर लेखन है। पत्रकारिता की इस धारा का मुख्य कार्य है मनोरंजन। इन दिनों गड़बड़ यह हो रही है कि पत्रकारिता में इन तीनों धाराओं के बीच घालमेल होता दिखाई दे रहा है। लेकिन पत्रकारिता की समूची दुनिया को समझने तथा इस दुनिया में समाचार के स्थान को निर्धारित करने के लिए इन मूलभूत अवधारणाओं के बारे में समझ विकसित करना आवश्यक है।

सूचना छवियां और यथार्थ

मानव सभ्यता के विकास में संचार की अहम भूमिका रही है। मानव सभ्यता अपने ज्ञान के भंडार को समृद्ध करने और इसके विस्तार के लिए संचार पर ही निर्भर रही है। विकास की इस प्रक्रिया में युगांतरकारी परिवर्तनों के साथ संचार प्रणालियों में भी भारी परिवर्तन आए हैं। प्रारंभिक काल में लोग जितना भी ज्ञान और जानकारियां प्राप्त करते थे उनके लिए उन्हें उसे अपने जीवन और उसके यथार्थ के तराजू पर तौलना कहीं अधिक आसान होता था। उसके लिए आज की तुलना में कहीं अधिक गुंजाइश होती थी। ज्ञान के विस्फोट और कई नई प्रौद्योगिकियों के आगमन के साथ ही संचार प्रक्रिया भी जटिल होती चली गई। आज लोगों को जितना भी ज्ञान और जानकारियां प्राप्त होती हैं उसका विशाल हिस्सा अत्यंत परिष्कृत प्रौद्योगिकियों से लैस सूचनातंत्रों से आता है। बहुत कम जानकारियां ऐसी होती हैं जिन्हें लोग अपने प्रत्यक्ष अनुभव के तराजू पर तौलने की स्थिति में होते हैं।

सूचनाओं और जानकारियों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता और उनके तीव्र आवेग से इन छवियों के ध्वस्त होने और नई छवियों के निर्माण की प्रक्रिया भी अत्यंत तेज हो गई है। इससे लोगों के मूल्यों, विश्वासों, विचारों और दृष्टिïकोणों को भी प्रभावित किया जा सकता है। इस कारण चीजों को देखने के उनके नजरिए और सूचना छवियों के उनके संसार को प्रभावित करने की आधुनिक सूचनातंत्रों की क्षमता काफी बढ़ गई है।  सूचना के इस युग में जब हम ज्ञान की बात करते हैं तो वास्तव में हमारा आशय सूचना छवियों से ही होता है। सैद्धांतिक रूप से ज्ञान की वैधता इसके सच होने में ही निहित होती है। एक व्यक्ति का ज्ञान अपनी मौलिकता में एक तरह का आत्मपरक ज्ञान ही होता है और इसी के आधार पर वह उन तमाम विषयों और घटनाओं को देखता है जो विश्व भर में घट रही होती हैं और जिनसे उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई आमना-सामना नहीं होता। किसी विषय और घटना के बारे में नई सूचनाओं और जानकारियों के मिलने पर उसके बारे में किसी व्यक्ति के ज्ञान में परिवर्तन हो सकता है और उसकी सूचना छवि का पुनर्निर्धारण हो सकता है।

प्रश्न यह है कि इन सूचनाओं और जानकारियों को एक व्यक्ति किस हद तक स्वीकार या अस्वीकार करता है और किस हद तक इसके बारे में उसके ज्ञान में वृद्धि या परिवर्तन होता है और किस तरह और किस हद तक ये उसकी पहले से निर्मित छवि को प्रभावित करने में सक्षम होती हैं। छवियों के निर्माण और पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया से लोगों की संपूर्ण सोच में परिवर्तन आता है। इस परिवर्तन का स्वरूप विशिष्टï सामाजिक परिस्थितियां ही निर्धारित करती हैं। छवि पर अनेक तरह के संदेश लगातार प्रहार कर रहे होते हैं। संदेश से आशय चयनित या प्रोसेस्ड सूचनाओं का पैकेज है जो छवि में परिवर्तन लाने के लिए पूरी सिद्धहस्तता के साथ तैयार किया जाता है।

छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया

जैसा कि इस अध्याय के प्रारंभ में बताया गया है हम अपने प्रत्यक्ष अनुभव के बाहर की दुनिया के बारे में तमाम जानकारियां समाचार माध्यमों से प्राप्त करते हैं। इस तरह हम देश-दुनिया के बारे में जो भी जानते हैं वह एक छवि होती है जिसका गठन हम उन तमाम सूचनाओं के आधार पर करते हैं जो हमे समाचार माध्यमों से मिलती है। इस दृष्टिïकोण से हम एक तरह से सूचना छवियों की दुनिया में रहते हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जो भी छवियां हमारे मस्तिस्क में अंकित है वे वास्विकता के कितने करीब है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि आधुनिक सूचनातंत्र एक ओर तो हमे ढेर सारी जानकारियां देते है और हमारे ज्ञान में अत्यधिक वृद्धि करते हैं। लेकिन साथ ही कई विषयों की जो छवियां वे बनाते हैं वे यर्थात को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं। सूचना छवियों, इन छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया और भ्रमों के इस मायाजाल को सूचना के तथाकथित विस्फोट ने और भी जटिल बना दिया है। सूचना क्रांति के उपरोक्त संदेशों की बमबारी अत्यंत तेज हो गई है जिसका स्वरूप और दिशा एकतरफा है। आधुनिक सूचनातंत्र आज छवियों को बनाने-बिगाडऩे पर ही केंद्रित हैं और काफी हद तक इसमें सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक सूचनातंत्र लोगों के दिमाग में एक ऐसी छवि का निर्माण कर रहे हैं जिनसे अनेक तरह के उत्पादों का बाजार तैयार किया जा सके और इनमें सबसे ऊपर वैचारिक उत्पाद ही होते हैं।

समाचारों के चयन की प्रक्रिया के कारण सूचना और जानकारियों का यह प्रवाह किसी भी विषय की संपूर्ण तस्वीर या पूर्ण यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता। यह किसी भी विषय के किसी खास पहलू के बारे में सूचनाएं और जानकारियां देता है और इसके कई अन्य पहलुओं की अनदेखी करता है। इस प्रक्रिया से किसी भी विषय या घटना की खंडित तस्वीर ही प्रस्तुत की जाती है जो अक्सर इसके संपूर्ण यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाली सूचनाओं और जानकारियों से विहीन होती है। सूचना छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में आज विकृत और विखंडित छवियों का व्यापार ही अधिक हावी है।

परंपरागत रूप से सूचना और संचार प्रक्रिया ही सामाजिक संगठन का आधार रही है। इसमें आदान-प्रदान का तत्त्व अहम भूमिका अदा करता था। इस आदान-प्रदान से समाज और संस्कृतियों के स्वस्थ विकास का मार्ग प्रशस्त होता रहा है क्योंकि इसमें किसी तरह की ‘जोर जबर्दस्ती’ के तत्त्व नहीं थे। इसमें छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया एकतरफा नहीं थी। लेकिन सूचना युग में संवाद की परंपरागत शैली का लगभग अंत सा हो गया है। आधुनिक सूचना और संचारतंत्रों ने इसे संवाद के बजाए एक बमबारी का रूप दे डाला है जिसमें ‘जोर-जबर्दस्ती’ के तत्त्व मौजूद हैं और यह संवाद न होकर एकतरफा प्रवाह तक सीमित होकर रह गई है।

सूचना छवियां और समाचारों का महत्त्व

विश्व की किसी भी घटना की जानकारी सबसे पहले समाचारों से ही मिलती है। समाचार किसी भी घटना के बारे में जिन तथ्यों को प्राथमिकता और प्रमुखता देते हैं उसी के अनुसार उस घटना के बारे में लोगों के मस्तिष्क पर छवियों का निर्माण होता है। समाचार के संदर्भ में ‘घटना’ का उल्लेख इसके समाचारीय होने के आधार पर किया गया है। समाचारीय घटना सचमुच में कोई घटना भी हो सकती है और विचार तथा कोई समस्या भी हो सकती है। अनेक तरह के रुझानों और प्रक्रियाओं को भी समाचारीय घटना के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ये समाचारीय घटनाएं वे घटनाएं होती हैं जो अचानक आज ही घटित नहीं होतीं। मसलन राजनीतिक सोच, सामाजिक परिवर्तन, लोगों के दृष्टिïकोण और जीवन शैली में आने वाले बदलाव भी समाचारीय घटनाएं बनते हैं हालांकि ऐसा रातोंरात घटित नहीं होता बल्कि उन्हें घटित होने में वर्षों लगते हैं।

सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता है कि समाचार किसी भी घटना का प्रतिबिंब हैं। यह उस घटना को उसकी संपूर्ण सत्यता और वस्तुपरकता के आधार पर ही प्रस्तुत करता है। लेकिन दशकों से यह बहस चल रही है कि समाचार माध्यमों  से विश्व भर के अनेक विषयों की कैसी छवि का निर्माण हो रहा है? मानव समाज में संचार की प्रक्रिया के माध्यम से निर्मित छवियां ही से एक व्यक्ति के लिए प्रमुख यथार्थ होती हैं। जिस विषय के बारे में जो सूचना छवि निर्मित कर दी जाती है उस विषय पर उसका यथार्थ वही होता है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या यथार्थ और समाचार माध्यमों द्वारा निर्मित उसकी छवियों के बीच अंतर होता है? फिर समाचार माध्यमों से मिलने वाली सूचनाओं के प्रेषक भी तो किसी विषय की स्वयं अपनी ही छवि के आधार पर उसका मूल्यांकन और विश्लेषण करते हैं।

लेकिन जब मामला राजनीतिक और आर्थिक जीवन के जटिल और विवादास्पद क्षेत्रों तक जाता है तो पत्रकार के उत्पाद के स्वरूप का निर्धारण स्रोतों के चयन से तय हो जाता है। भारत में भी भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख परिवर्तनों की रिपोर्टिंग का स्वरूप सूत्रों के चयन से ही तय हो जाता है। आज किसी भी समाचारपत्र का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि अधिकांश सूचनाएं ऐसी हैं जिनके स्रोत गुमनाम ही रहना चाहते हैं। इन परिस्थितियों में पत्रकार ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘राजनीतिक सूत्रों’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। अधिकांश जानकारियों के मूल में इसी तरह के स्रोत होते हैं। एक पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने स्रोत की रक्षा करे और अगर वह इसमें विफल होता है तो स्वयं अपनी साख खोने का जोखिम मोल लेता है। इस तरह के बेनामी सूत्रों से निश्चय ही किसी भी व्यवस्था में बचा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सच है कि तमाम तरह की गलत जानकारियां और किसी खास उद्देश्य से प्लांट किए गए समाचार भी इन्हीं स्रोतों की देन होते हैं।

आखिर कोई स्रोत पत्रकार को सूचना क्यों देना चाहता है? आदर्श रूप से हर व्यवस्था में ईमानदार लोग होते हैं जो गलत चीजों का भंडाफोड़ करने के लिए मीडिया का सहारा लेते हैं। लेकिन समाचार ‘बूम’ के इस युग में ऐसे अवसर अधिक आते हैं जब सूचना देने वाले स्रोत के मकसद कुछ और ही होते हैं। जब कभी कोई ‘स्रोत’ पत्रकार को ‘समाचार’ देेता है जो अधिकांशत: उसके पीछे उसका अपना कोई उद्देश्य होता है जिसे वह मीडिया का इस्तेमाल कर पूरा करना चाहता है।

ऐसा नहीं है कि पत्रकार इस पहलू से वाकिफ नहीं होते हैं। एक तो स्थिति यह हो सकती है कि कोई पत्रकार अनचाहे ही इस तरह के ‘समाचार स्रोत’ द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाए। दूसरा यह भी है कि तथाकथित बाजार प्रतिस्पर्धा में वह आगे रहना चाहता है और सब कुछ जानते हुए भी इस तरह के ‘समाचारों’ को लोगों तक पहुंचाने के अपने व्यावसायिक ‘आकर्षण’ से मुक्त नहीं हो पाता। लेकिन आज मुख्य रूप से ये दोनों ही परिस्थितियां कम ही देखने को मिलती हैं। एक व्यवस्था द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर रहते हुए पत्रकार स्वयं ही उन मर्यादाओं का पालन नहीं कर पाते जो इस व्यवस्था ने स्वयं ही तय की है।

व्यवस्था के भीतर भी वस्तुपरक और संतुलित रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक है कि सत्ता और पत्रकार के बीच एक ‘सम्मानजक दूरी’ बनाए रखी जाए। लेकिन आज जो रुझान सामने आ रहे हैं उसमें यह दूरी लगातार कम होती जा रही है और मीडिया पर सत्ता के प्रभाव में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है और इस व्यवसाय में जनोन्मुखी तत्त्वों का ह्रïास होता जा रहा है। आज मीडिया और सत्ता के बीच हेलमेल के संबंध ही अधिक विकसित होते जा रहे हैं। मीडिया संगठनों के स्वामित्व, उनके मालिकों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं, एक पत्रकार के अपने संकीर्ण हित जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं तो सत्ता और मीडिया के इन करीबी नकारात्मक संबंधों को उजागर करते हैं। यहां सवाल सत्ता और मीडिया के संबंधों को नकारने का नहीं है बल्कि किसी भी लोकतंत्र में इन संबंधों का होना पहली शर्त है। सवाल इन संबंधों के नकारात्मक स्वरूप का है। इतना ही नहीं इन नकारात्मक संबंधों को बाकायदा कानूनी और संस्थागत रूप दे दिया गया है।

इस तरह के अनेक रुझान समकालीन पत्रकारिता में देखे जा सकते हैं। पत्रकारिता पर इस तरह के रुझानों से ‘सरकारी सूत्र’ (व्यापक रूप से सत्ता सूत्र) हावी होते चले जाते हैं। सरकारी सूत्र निस्संदेह समाचारों के सबसे अहम सूत्र हैं लेकिन इनसे मिलने वाली हर जानकारी का पत्रकारिता के मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन जरूरी है।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वैचारिक संदेश

समाचारों के माध्यम से संदेश दो तरह से प्रेषित किए जाते हैं। पहली श्रेणी के संदेश तो वे होते हैं जो ऊपरी तौर पर समाचार पढऩे या देखने से ही सामने आ जाते हैं। लेकिन समाचारों में अनेक ऐसे निहित संदेश होते हैं जिनका अर्थ समाचार के वैज्ञानिक विश्लेषण से ही निकाला जा सकता है। प्रच्छन्न रूप से समाचार जो संदेश देते हैं, उन्हीं में विचारों का तत्त्व अहम होता है तथा वस्तुपरकता और तथ्यात्मकता के सिद्धांत का संबंध समाचार के प्रत्यक्ष रूप से ज्यादा है।

पत्रकारिता की पाठ्यपुस्तकों में यह बताया जाता है कि हर समाचार में ‘कौन’, ‘क्या’, ‘कब’, ‘कहां’, ‘क्यों,’ और ‘कैसे’- का उत्तर होना आवश्यक है तभी ही समाचार पूर्ण हो पाता है। जब कभी किसी समाचार में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का उत्तर दिया जाता है तो तथ्यों के विश्लेषण और व्याख्या की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पहले चार प्रश्नों का उत्तर तैयार करने की समाचार उत्पादन की प्रक्रिया में एक खास तरह के तथ्यों के चयन से इसमें वैचारिक तत्त्वों का प्रवेश हो जाता है और आखिरी दो प्रश्नों के उत्तर से समाचार की वैचारिक स्थिति स्पष्टï रूप से सामने आ जाती है।

यह वैचारिक स्थिति पहले तो उस व्यवस्था से ही निर्धारित हो जाती है जिसमें कोई मीडिया संगठन काम करता है। इसके अलावा मीडिया संगठन के स्वामित्व और पत्रकार की अपनी सोच और दृष्टिïकोण भी समाचार के वस्तुविषय (कंटेंट) को निर्धारित करते हैं। समाचार में छिपे संदेशों और अर्थों को समझने के लिए विषय, इस विषय के चयन की प्रक्रिया, इसकी शब्दावली और प्रस्तुतीकरण का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। इस तरह के विश्लेषण से यह सवाल बार-बार उठता है कि समाचारों के उत्पादन और प्रवाह की प्रक्रिया के हर चरण में घटनाओं की व्याख्या प्रभुत्वकारी फ्रेमवर्क को ही अपने उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में सुदृढ़ करती चली जाती है और हर बदलती स्थिति के साथ इस फ्रेमवर्क में भी परिवर्तन आता रहता है ताकि इसके स्थायित्व पर कोई आंच न आए।

इस तरह लोगों की सोच को प्रभुत्वकारी विचारधारा के मुताबिक ढाला जाता है और इस प्रक्रिया में लोगों की कोई वैकल्पिक सोच विकसित करने की क्षमता का ह्रïास होता चला जाता है। साथ ही वैकल्पिक मीडिया और विचारधारा के पनपने का सामाजिक आधार भी संकुचित होता चला जाता है। इस तरह किसी भी व्यवस्था में काम करने वाला मीडिया अपने स्वभाव से ही यथा स्थितिवादी होता है।

किसी घटना के समाचार बनने की प्रक्रिया को करीब से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि समाचार प्रवाह की पूरी प्रक्रिया एक वैचारिक कार्रवाई है। समाचार अपने उत्पादन प्रक्रिया और तंत्र से ही निर्धारित होते हैं। इसलिए यह एक ऐसी अंतर्निहित, अनुत्तरित और निरंतर जारी प्रक्रिया है जिससे सूचनाओं के अंबार को पत्रकारीय ढांचे में तरह-तरह की तोड़-मरोड़ के साथ प्रस्तुत किया जाता है जिससे यथार्थ की यथास्थितिवादी आधिकारिक अवधारणा को ही प्रोजेक्ट किया जा सके।

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि हर पत्रकार कोई जानबूझकर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करता है लेकिन उसकी समाचार की अवधारणाएं और मूल्यों की रचना की पूरी प्रक्रिया उसे यथार्थ को एक खास वैचारिक दृष्टिïकोण से देखने के प्रति अनुकूलित कर देती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस अनुकूलन के कारण एक पत्रकार अपने दृष्टिïकोण के अनुसार घटनाओं की वस्तुपरक रिपोर्टिंग और प्रस्तुतीकरण कर रहा होता है लेकिन अपने अंतिम निष्कर्ष में वह समाज के एक विशेष वर्ग के हितों और मूल्यों की ही पूर्ति कर रहा होता है।

इस आधार पर स्वभावत: यह सवाल उठता है कि क्या समाचारों के प्रस्तुतीकरण के वैचारिक चरित्र को तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक मूलभूत सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन न किए जाएं? निश्चय ही अगर ऐसा होता भी है तो भी नई व्यवस्था की शासक विचारधारा और मूल्यों को ही मीडिया प्रोजेक्ट करेगा और सच्चाई की तलाश यहीं खत्म नहीं हो जाएगी। मीडिया के संदर्भ में यथार्थ और सच्चाई का संबंध व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र से है। मीडिया का वस्तुपरक होना भी उतना ही बड़ा मिथक है कि जितना किसी भी व्यवस्था के संपूर्ण रूप से लोकतांत्रिक होने का मिथक है।

छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया

जैसा कि इस अध्याय के प्रारंभ में बताया गया है हम अपने प्रत्यक्ष अनुभव के बाहर की दुनिया के बारे में तमाम जानकारियां समाचार माध्यमों से प्राप्त करते हैं। इस तरह हम देश-दुनिया के बारे में जो भी जानते हैं वह एक छवि होती है जिसका गठन हम उन तमाम सूचनाओं के आधार पर करते हैं जो हमे समाचार माध्यमों से मिलती है। इस दृष्टिïकोण से हम एक तरह से सूचना छवियों की दुनिया में रहते हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जो भी छवियां हमारे मस्तिस्क में अंकित है वे वास्विकता के कितने करीब है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि आधुनिक सूचनातंत्र एक ओर तो हमे ढेर सारी जानकारियां देते है और हमारे ज्ञान में अत्यधिक वृद्धि करते हैं। लेकिन साथ ही कई विषयों की जो छवियां वे बनाते हैं वे यर्थात को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं। सूचना छवियों, इन छवियों के बनने-बिगडऩे की प्रक्रिया और भ्रमों के इस मायाजाल को सूचना के तथाकथित विस्फोट ने और भी जटिल बना दिया है। सूचना क्रांति के उपरोक्त संदेशों की बमबारी अत्यंत तेज हो गई है जिसका स्वरूप और दिशा एकतरफा है। आधुनिक सूचनातंत्र आज छवियों को बनाने-बिगाडऩे पर ही केंद्रित हैं और काफी हद तक इसमें सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक सूचनातंत्र लोगों के दिमाग में एक ऐसी छवि का निर्माण कर रहे हैं जिनसे अनेक तरह के उत्पादों का बाजार तैयार किया जा सके और इनमें सबसे ऊपर वैचारिक उत्पाद ही होते हैं।

समाचारों के चयन की प्रक्रिया के कारण सूचना और जानकारियों का यह प्रवाह किसी भी विषय की संपूर्ण तस्वीर या पूर्ण यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता। यह किसी भी विषय के किसी खास पहलू के बारे में सूचनाएं और जानकारियां देता है और इसके कई अन्य पहलुओं की अनदेखी करता है। इस प्रक्रिया से किसी भी विषय या घटना की खंडित तस्वीर ही प्रस्तुत की जाती है जो अक्सर इसके संपूर्ण यथार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाली सूचनाओं और जानकारियों से विहीन होती है। सूचना छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में आज विकृत और विखंडित छवियों का व्यापार ही अधिक हावी है।

परंपरागत रूप से सूचना और संचार प्रक्रिया ही सामाजिक संगठन का आधार रही है। इसमें आदान-प्रदान का तत्त्व अहम भूमिका अदा करता था। इस आदान-प्रदान से समाज और संस्कृतियों के स्वस्थ विकास का मार्ग प्रशस्त होता रहा है क्योंकि इसमें किसी तरह की ‘जोर जबर्दस्ती’ के तत्त्व नहीं थे। इसमें छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया एकतरफा नहीं थी। लेकिन सूचना युग में संवाद की परंपरागत शैली का लगभग अंत सा हो गया है। आधुनिक सूचना और संचारतंत्रों ने इसे संवाद के बजाए एक बमबारी का रूप दे डाला है जिसमें ‘जोर-जबर्दस्ती’ के तत्त्व मौजूद हैं और यह संवाद न होकर एकतरफा प्रवाह तक सीमित होकर रह गई है।

इस प्रक्रिया के माध्यम से लोगों को खास तरह की जानकारी मुहैया कर एक खास तरह की छवि का निर्माण किया जा रहा है। छवियों का यह निर्माण हाल के वर्षों में मीडिया पर अधिकाधिक निर्भर होता जा रहा है। शहरी तबकों में आज टेलीविजन देखने में लोग काफी समय व्यतीत करते हैं। कुछ दशक पहले तक देशों, लोगों, जगहों आदि के बारे में छवियों के निर्माण की प्रक्रिया काफी हद तक सामाजिक माहौल पर निर्भर होती थी जिसमें परिवार से लेकर स्कूल तक का संपूर्ण माहौल शामिल है। इस माहौल से भी अनेक गलत छवियां बनती थीं लेकिन इनकी जड़ें बहुत गहरी नहीं होती थीं और लोगों की सोच में एक खुलापन दिखता था। वे किसी भी विषय पर नई सूचनाओं और जानकारियों को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते थे। आज के मीडिया ने लोगों को उनके अपने इस माहौल से ही काट दिया है। लोगों के जीवन में मीडिया का हस्तक्षेप इस कदर बढ़ता जा रहा है कि सामाजिक माहौल को भी यही नियंत्रित करने लगा है।

मीडिया के वैश्वीकरण और खास तौर से उपग्रह टेलीविजन के हाल के वर्षों में हुए तेजतर विकास से सूचना छवियों के निर्माण-पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में इस माध्यम की भूमिका अहम हो गई है। आज पश्चिमी वर्चस्व वाले टेलीविजन चैनल विश्व भर में छा गए हैं और विकासशील देशों के शहरी क्षेत्रों में इनकी खासी पहुंच कायम हो चुकी है। जाहिर है कि इनके तमाम प्रोग्राम पश्चिमी चश्मे से ही विश्व को देखते हैं और इसी के अनुसार अनेकानेक विषयों के बारे में सूचनाएं और जानकारियां देते हैं। आज के मीडिया बाजार में पश्चिमी उत्पादों की ही बहुलता है। टेलीविजन माध्यम का काफी स्थानीयकरण भी हुआ है लेकिन सूचना छवियों के निर्धारण में पश्चिमी मूल्यों का वर्चस्व और प्रतिमानों का नियंत्रण इन पर भी स्पष्टï रूप से देखा जा सकता है।

सूचनाओं की प्रोसेसिंग

अनेक विषयों के बारे में सूचनाओं और जानकारियों के लिए लोग मीडिया पर ही मुख्य रूप से निर्भर होते हैं। ये सूचनाएं और जानकारियां कई स्तरों पर वैचारिक प्रोसेसिंग के बाद ही उपभोक्ताओं तक पहुंचती हैं। लोगों के पास अन्य तरह की सूचनाएं और जानकारियां हासिल करने का कोई वैकल्पिक साधन नहीं होता। फिर उनके पास वैकल्पिक जानकारियां हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने का कोई कारण भी नहीं होता। इस तरह विश्व के बारे में सूचनाओं और जानकारियों के साधनों पर एकाधिकार के कारण यथार्थ की छवि को अधिकाधिक क्षत-विक्षत करना आसान हो जाता है। इस तरह मीडिया यथार्थ की जो छवि प्रस्तुत करता है वह अधिकाधिक कृत्रिम यथार्थ की ओर उन्मुख होता है। इस प्रक्रिया में मीडिया के यथार्थ और वास्तविक यथार्थ के बीच की दूरी का विस्तार होता चला जाता है।

विश्वीकृत मीडिया हजारों घटनाओं की अनदेखी कर चंद घटनाओं की ही जानकारी देता है और फिर इन घटनाओं के बारे में भी सूचनाओं और जानकारियों के भंडार में से एक छोटे से अंश का ही प्रयोग करता है जिसका विश्व भर में व्यापक पैमाने पर वितरण कर ‘अनुकूल’ छवियां प्रस्तुत की जाती हैं। मीडिया का प्रभाव इस कारण भी अधिक हो जाता है क्योंकि उपभोक्ताओं के पास वैकल्पिक सूचना स्रोत नहीं होते हैं। इस तरह लोग मीडिया के यथार्थ को ही वास्तविक यथार्थ के रूप में स्वीकार करने को मजबूर होते हैं। इस मामले में टेलीविजन अन्य माध्यमों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली साबित होता है क्योंकि इसके पास अपने यथार्थ को पुख्ता करने के लिए ‘जीवंत तस्वीरों’ के रूप में ‘ठोस सबूत’ होते हैं।

मीडिया द्वारा परोसी गई सामग्री के आधार पर ही किसी देश, संस्कृति या किसी भी अन्य विषय की प्रभुत्वकारी छवि का निर्माण होता है। इन छवियों के आधार पर ही इनको विषयों से संबंधित कर कार्रवाई का परिप्रेक्ष्य निर्धारित होता है। विश्व पटल पर किसी भी तरह की राजनीतिक, आर्थिक या सैनिक कार्रवाई को लोग अंतर्राष्टï्रीय यथार्थ से संबद्ध न कर इस यथार्थ की बनी अपनी छवि के माध्यम से देखते हैं और इसी के अनुरूप इस पर अपनी सहमति या असहमति की मोहर लगाते हैं। इस तरह मीडिया एक अंतर्राष्टï्रीय छवि निर्माता की भूमिका अदा करता है।

मीडिया संगठन बाजार प्रतियोगिता में प्रतिद्वंद्वी होते हैं लेकिन व्यवस्था की विचारधारा और मूलभूत अवधारणाओं को लेकर उनके बीच पूरी सहमति होती है। स्वयं का उनका अस्तित्व इस व्यवस्था से संबद्ध होता है। इस कारण वे बाजार व्यवस्था से बाहर का  कोई विकल्प पेश नहीं करते बल्कि इसके मातहत ही विविधता का बखान करते हंै। इस तरह समकालीन विश्व के अहम और टकराववादी मसलों पर विश्वीकृत मीडिया की सोच और समझ में कोई मूलभूत अंतर नहीं होता और बाजार प्रतियोगिता अधिकाधिक सनसनीखेज और अतिरंजित होने की ओर ही अधिक उन्मुख होती हैं।

समाचारों के संदर्भ में यह प्रतियोगिता सनसनीखेज अधिक होती है जबकि अन्य मीडिया प्रोग्रामिंग में सस्ते मनोरंजन की ओर ही अधिक उन्मुख होती हैं। विश्व राजनीति और सत्ता संघर्ष आज इन्हीं सूचना छवियों पर टिकी है। किसी देश के खिलाफ अगर किसी महाशक्ति को कोई सैनिक कार्रवाई करनी हो तो पहले इस देश की ऐसी छवि का निर्माण आवश्यक हो जाता है जिससे लोगों को यह सैनिक कार्रवाई वाजिब प्रतीत हो।

सूचना छवियां और समाचारों का महत्त्व

विश्व की किसी भी घटना की जानकारी सबसे पहले समाचारों से ही मिलती है। समाचार किसी भी घटना के बारे में जिन तथ्यों को प्राथमिकता और प्रमुखता देते हैं उसी के अनुसार उस घटना के बारे में लोगों के मस्तिष्क पर छवियों का निर्माण होता है। समाचार के संदर्भ में ‘घटना’ का उल्लेख इसके समाचारीय होने के आधार पर किया गया है। समाचारीय घटना सचमुच में कोई घटना भी हो सकती है और विचार तथा कोई समस्या भी हो सकती है। अनेक तरह के रुझानों और प्रक्रियाओं को भी समाचारीय घटना के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ये समाचारीय घटनाएं वे घटनाएं होती हैं जो अचानक आज ही घटित नहीं होतीं। मसलन राजनीतिक सोच, सामाजिक परिवर्तन, लोगों के दृष्टिïकोण और जीवन शैली में आने वाले बदलाव भी समाचारीय घटनाएं बनते हैं हालांकि ऐसा रातोंरात घटित नहीं होता बल्कि उन्हें घटित होने में वर्षों लगते हैं।

सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता है कि समाचार किसी भी घटना का प्रतिबिंब हैं। यह उस घटना को उसकी संपूर्ण सत्यता और वस्तुपरकता के आधार पर ही प्रस्तुत करता है। लेकिन दशकों से यह बहस चल रही है कि समाचार माध्यमों  से विश्व भर के अनेक विषयों की कैसी छवि का निर्माण हो रहा है? मानव समाज में संचार की प्रक्रिया के माध्यम से निर्मित छवियां ही से एक व्यक्ति के लिए प्रमुख यथार्थ होती हैं। जिस विषय के बारे में जो सूचना छवि निर्मित कर दी जाती है उस विषय पर उसका यथार्थ वही होता है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या यथार्थ और समाचार माध्यमों द्वारा निर्मित उसकी छवियों के बीच अंतर होता है? फिर समाचार माध्यमों से मिलने वाली सूचनाओं के प्रेषक भी तो किसी विषय की स्वयं अपनी ही छवि के आधार पर उसका मूल्यांकन और विश्लेषण करते हैं।

व्यापारीकृत मीडिया ने बाजार की तथाकथित आवश्यकताओं तथा लोगों की रुचियों को जिस रूप में निर्धारित किया है उसी पैमाने पर कुछ घटनाएं समाचार बनती हैं और इस समाचार में भी घटना के बारे में चंद जानकारियों का ही चयन होता है जो उपरोक्त कसौटी पर खरे उतरते हों। किसी भी समाचारीय घटना के बारे में बहुतायत जानकारियां नदारद होती हैं।

समाचार उत्पादन की प्रक्रिया

एक पत्रकार उन जानकारियों को ही समाचार में शामिल करता है जो उसकी स्वयं की समाचार अवधारणाओं और मूल्यों पर खरी उतरती हैं। फिर उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते अनेक चरणों में इस समाचार रूपी सूचना पैकेज की रीपैकेजिंग और प्रोसेसिंग होती है। इससे यथार्थ और छवि के बीच अंतर बढ़ता चला जाता है और संभव है कि उपभोक्ता तक पहुंचने वाली सूचनाएं संपूर्ण यथार्थ की प्रतिनिधित्व न करती हों और इस तरह इसकी एक विकृत छवि पैदा करती हों। समाचारों की दुनिया वास्तव में सूचना छवियों की ही दुनिया है। इसकी संचार प्रक्रिया में शामिल सभी कडिय़ां अपने-अपने दृष्टिïकोण से यथार्थ को देखती हैं और इसका विश्लेषण और व्याख्या करती हैं।

किसी भी समाचार माध्यम का यह दावा खोखला होता है कि उसने किसी घटना या विषय के केंद्रीय तत्त्वों और प्रतिनिधित्वपूर्ण सूचनाओं के जरिए यथार्थ की सही छवि प्रस्तुत की है क्योंकि कोई समाचार माध्यम समाचारों और इनसे निर्मित होने वाले छवियों के बारे में पहले से निर्धारित मूल्यों का पालन करता है और हर घटना को एक खास वैचारिक स्थिति से देखता है। इन जटिल प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद अधिकांशत: समाचार यथार्थ की एक खंडित और भ्रमपूर्ण छवि का ही निर्माण करते हैं और इस यथार्थ के एक खास हिस्से को प्रोजेक्ट करते हंै और शेष हिस्सों के बारे में कोई जानकारी न देकर सूचना छवि को यथार्थ से और भी दूर ले जाते हंै।

एक दृष्टिïकोण से किसी विषय के बारे में एक तरह की जानकारियां अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं तो दूसरे दृष्टिïकोण से संभव है महत्त्वपूर्ण जानकारियां इससे एकदम भिन्न हों या फिर चंद ही समानताएं हों और विषमताएं अधिक।  मूल प्रश्न यही है कि किसी घटना या विषय के बारे में किस तरह के तथ्यों का चयन समाचार के लिए  किया जाता है और किस आधार पर इससे कहीं अधिक तथ्यों को समाचार में शामिल करने योग्य नहीं माना जाता।

मीडिया द्वारा निर्मित किसी घटना की विखंडित छवि ही उपभोक्ता के लिए संपूर्ण यथार्थ होती है। इस दृष्टिï से किसी भी विषय पर प्राप्त किया गया ज्ञान अनेक सीमाओं में बंधा होता है। समाचारों के माध्यम से किसी विषय की वस्तुपरक छवि प्रेषित करने का दावा किया जाता है। आदर्श रूप से समाचार में विचार नहीं होते। समाचार तथ्यपरक होते हैं। इससे इन्हें विश्वसनीयता और एक तरह की वैज्ञानिकता का दर्जा प्राप्त हो जाता है। समाचार किसी भी विषय की जैसी छवि पैदा करते हैं वह इस विषय पर अन्य तमाम तरह की मीडिया प्रोग्रामिंग को निर्धारित करती हैं। समाचारों से उत्पन्न छवियां ही अनेक रूपों में इसके नाटकीय रूपांतरण की दिशा तय करती हैं। इस तरह वस्तुपरक और तथ्यपरक रूप से प्रस्तुत कोई भी विषय इसी छवि के अनुसार कल्पित मीडिया प्रोग्रामिंग – चाहे वह कोई सीरियल हो या फीचर फिल्म- को भी निर्धारित करता है।

सूचना छवियां यथार्थ को प्रतिबिंबित करने के बजाए इसकी आभासी प्रतिबिंब मात्र होती हैं। आज समाचारों को लेकर सर्वत्र यह स्वीकार कर लिया गया है कि इनका ऐसा कोई प्रस्तुतीकरण हो ही नहीं सकता जो समान रूप से सबको वस्तुपरक लगे। इसलिए समाचारों की दुनिया में आज इस तथ्य को  स्वीकार कर लिया गया है कि समाचारों का चयन और उनका प्रस्तुतीकरण ऐसा होना चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को यह वस्तुपरक प्रतीत हो। स्वभावत: कोई भी समाचार संगठन अपने उपभोक्ताओं के वस्तुबोध (परसेप्शन) के संदर्भ में ही वस्तुपरकता का अधिकतम स्तर हासिल करने का प्रयास करता है। इस सिद्धांत के पालन और उल्लंघन से ही किसी भी समाचार संगठन की साख बनती या बिगड़ती है। लेकिन समाचार उत्पादन से संबद्ध लोग भली-भांति जानते हैं कि लोगों के सामने जो पेश किया जा रहा है वह संपूर्ण घटना का एक अंश मात्र ही है।

टेलीविजन माध्यम की आंख कैमरा होता है। एक समय टेलीविजन माध्यम की संपूर्णता के बारे में यह दावा किया जाता था कि ‘ घटना को सीधे घटते देखिए।’ आज सर्वविदित है कि टेलीविजन के परदे पर प्रस्तुत की जाने वाली तस्वीरें एक बड़े घटनाक्रम की चंद ‘आकर्षक तस्वीरों और बाइट’ से बढक़र कुछ नहीं हैं। एक कैमरामैन किसी भी सामान्य घटना की पांच से पंद्रह मिनट तक की वीडियो टेप लाता है लेकिन एक आधे घंटे के समाचार बुलेटिन में आम तौर पर इसका 50-60 सेकेंड से अधिक उपयोग नहीं होता। आज  प्रतियोगिता के कारण हर टेलीविजन चैनल इस वीडियो टेप की उस क्लिपिंग को ही प्रस्तुत करने की ओर उन्मुख होता है जिसमें सनसनीखेज और एक्शन का तत्त्व सर्वाधिक हो। घटना की संपूर्णता के संदर्भ में वीडियो क्लिपिंग का चयन नहीं के बराबर होता है।

फिर आज नई-नई तरह की वीडियो प्रौद्योगिकियां उपलब्ध हैं जिनसे कैमरे के एक खास तरह के इस्तेमाल से यथार्थ की छवि में तोड़-मरोड़ की जा सकती है। ‘घटना’ से कैमरे की दूरी, उसकी किसी खास कोणीय स्थिति से ‘यथार्थ’ से अलग छवि का निर्माण किया जा सकता है।

सैद्धांतिक रूप से यह मान्यता है कि किसी भी समाचार को निष्पक्ष ढंग से प्रस्तुत किया जाए। निष्पक्षता का पैमाना यही है कि इससे संबद्ध हर पक्ष को समाचार में उसके महत्त्व के अनुसार स्थान मिले। लेकिन व्यवहार में इस सिद्धांत का पालन लगभग नामुमकिन है। खास तौर पर जब किसी समाचार के अनेक पक्ष हों। मुख्य रूप से एकपक्षीय समाचारों में निष्पक्षता का सिद्धांत लागू किया जा सकता है। समाचारों के संकलन, जांच-पड़ताल, तथ्यों का विश्लेषण, इनके प्रस्तुतीकरण की पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल है और राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मूल्यों से इस कदर जकड़ी हुई है कि वस्तुपरकता और निष्पक्षता किताबी शब्द बनकर रह जाते हैं। हर मीडिया संगठन अपने परिवेश के अनुसार ही वस्तुपरकता और निष्पक्षता के मानदंड निर्धारित करता है ताकि अपने उपभोक्ताओं के संदर्भ में वह वस्तुपरक हो बल्कि वस्तुपरक प्रतीत हो और उसकी साख बनी रहे।

क्या कोई पत्रकार अपने आपको किसी घटना के प्रति निरपेक्ष रख सकता है? उत्तर निश्चय ही नकारात्मक है। ऐसी कोई स्थिति हो ही नहीं हो सकती जहां से किसी भी समाचारीय घटना को निरपेक्ष भाव से देखा जा सकता हो।

जाहिर है कि अगर समान सामाजिक माहौल में वस्तुपरकता की इतनी अवधारणाएं हों तो वस्तुपरकता वास्तव में एक मिथक ही है। संतुलन का संबंध घटना से संबद्ध सभी पक्षों के दृष्टिïकोण को देना भर है जबकि वस्तुपरकता का सरोकार एक पत्रकार की सोच, उसके दृष्टिïकोण, उसके विचार से है जिन्हें उसने रातोंरात विकसित नहीं किया बल्कि जो बचपन से ही घर, स्कूल और समाज के माहौल में विकसित हुए। भारत के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि हिंदू-मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे की वह रिपोर्ट वस्तुपरक है जिसे पढऩे वाले को यह पता न चल पाए कि रिपोर्ट लिखने वाला हिंदू है या मुसलमान।

आशय यह है कि सैद्धांतिक रूप से वस्तुपरकता को परिभाषित नहीं किया जा सकता लेकिन इसका मतलब यह भी है कि इसकी एक कार्यात्मक (फंक्शनल) परिभाषा संभव है जो हर संदर्भ में उसी के अनुरूप निर्धारित होती हैं। इसका आशय यह भी है कि वस्तुपरकता न होते हुए भी महसूस की जा सकती है लेकिन इसकी अवधारणा एक सामाजिक दायरे के भीतर ही तय होती है जो पहले से ही निर्धारित और सीमित होता है। इन्हीं सीमाओं के भीतर पत्रकार वस्तुपरकता की अपनी अवधारणा को निर्धारित और परिभाषित करता है और किसी भी समाचार संगठन से जुड़े तमाम पत्रकार एक ‘कामन फ्रेम ऑफ रेफरेंस’ में काम करते हैं। पहले से ही तयशुदा वैचारिक स्थिति से ये वस्तुपरकता की एक समान अवधारणा विकसित कर लेते हैं जो स्वभावत: संपूर्ण यथार्थ के अनेक संदर्भों से कटी होती है।

वस्तुपरकता का सबसे विकृत रूप उन अंतर्राष्टï्रीय घटनाओं की रिपोर्टों में बहुत स्पष्टï रूप से झलकता है जो विकासशील देशों के बारे में पश्चिमी देशों के पत्रकारों द्वारा तैयार की जाती हैं। विकासशील देशों की घटनाओं को वे पश्चिमी समाज के नजरिए और स्वयं अपने ‘कंडिशंड’ मस्तिष्क से परखते हैं। यही कारण है कि पश्चिम नियंत्रित अंतर्राष्टï्रीय मीडिया विकासशील देशों की खंडित और विकृत छवियों का निर्माण करता है और घटनाओं के घटने के समाजशास्त्र को नजरअंदाज करता है।

समाचार संकलन की प्रक्रिया में पत्रकारों और समाचार स्रोतों का संबंध इस वैचारिक पेशे का एक अहम क्षेत्र है। समाचार संकलन के लिए स्रोतों की जरूरत पड़ती है। पश्चिमी तर्ज पर ढली पत्रकारिता की मान्यता है कि स्रोत अच्छे हों तो समाचार भी अच्छा होगा। लेकिन साथ ही स्रोतों का यह खेल इस व्यवसाय से संबद्ध जोखिमों से भरा है। परंपरागत रूप से पश्चिमी पत्रकारिता यही दावा करती है कि सूचना का स्रोत देना आवश्यक है। स्रोत भी ऐसा हो जो इस सूचना के देने की योग्यता रखता हो। स्रोत के बिना समाचार की प्रामाणिकता को धक्का पहुंचता है। साख पर आंच आती है। लेकिन स्रोतों के इस जटिल तंत्र में आज पत्रकारिता में अनेक विकृतियां भी पैदा हुई हैं। दुर्घटना जैसी घटनाओं पर तो स्रोतों की पहचान करना कोई कठिन नहीं है। प्रशासन, राहत कार्य में लगी एजेंसियां, अस्पताल, घायल लोग, मौके पर उपस्थित लोग जैसे अनेक स्रोतों को स्पष्टï रूप से प्रामाणिक स्रोत माना जा सकता है।

लेकिन जब मामला राजनीतिक और आर्थिक जीवन के जटिल और विवादास्पद क्षेत्रों तक जाता है तो पत्रकार के उत्पाद के स्वरूप का निर्धारण स्रोतों के चयन से तय हो जाता है। भारत में भी भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख परिवर्तनों की रिपोर्टिंग का स्वरूप सूत्रों के चयन से ही तय हो जाता है। आज किसी भी समाचारपत्र का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि अधिकांश सूचनाएं ऐसी हैं जिनके स्रोत गुमनाम ही रहना चाहते हैं। इन परिस्थितियों में पत्रकार ‘जानकार सूत्रों’, ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’, ‘राजनीतिक सूत्रों’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। अधिकांश जानकारियों के मूल में इसी तरह के स्रोत होते हैं। एक पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने स्रोत की रक्षा करे और अगर वह इसमें विफल होता है तो स्वयं अपनी साख खोने का जोखिम मोल लेता है। इस तरह के बेनामी सूत्रों से निश्चय ही किसी भी व्यवस्था में बचा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सच है कि तमाम तरह की गलत जानकारियां और किसी खास उद्देश्य से प्लांट किए गए समाचार भी इन्हीं स्रोतों की देन होते हैं।

आखिर कोई स्रोत पत्रकार को सूचना क्यों देना चाहता है? आदर्श रूप से हर व्यवस्था में ईमानदार लोग होते हैं जो गलत चीजों का भंडाफोड़ करने के लिए मीडिया का सहारा लेते हैं। लेकिन समाचार ‘बूम’ के इस युग में ऐसे अवसर अधिक आते हैं जब सूचना देने वाले स्रोत के मकसद कुछ और ही होते हैं। जब कभी कोई ‘स्रोत’ पत्रकार को ‘समाचार’ देेता है जो अधिकांशत: उसके पीछे उसका अपना कोई उद्देश्य होता है जिसे वह मीडिया का इस्तेमाल कर पूरा करना चाहता है।

ऐसा नहीं है कि पत्रकार इस पहलू से वाकिफ नहीं होते हैं। एक तो स्थिति यह हो सकती है कि कोई पत्रकार अनचाहे ही इस तरह के ‘समाचार स्रोत’ द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाए। दूसरा यह भी है कि तथाकथित बाजार प्रतिस्पर्धा में वह आगे रहना चाहता है और सब कुछ जानते हुए भी इस तरह के ‘समाचारों’ को लोगों तक पहुंचाने के अपने व्यावसायिक ‘आकर्षण’ से मुक्त नहीं हो पाता। लेकिन आज मुख्य रूप से ये दोनों ही परिस्थितियां कम ही देखने को मिलती हैं। एक व्यवस्था द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर रहते हुए पत्रकार स्वयं ही उन मर्यादाओं का पालन नहीं कर पाते जो इस व्यवस्था ने स्वयं ही तय की है।

व्यवस्था के भीतर भी वस्तुपरक और संतुलित रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक है कि सत्ता और पत्रकार के बीच एक ‘सम्मानजक दूरी’ बनाए रखी जाए। लेकिन आज जो रुझान सामने आ रहे हैं उसमें यह दूरी लगातार कम होती जा रही है और मीडिया पर सत्ता के प्रभाव में अधिकाधिक वृद्धि होती जा रही है और इस व्यवसाय में जनोन्मुखी तत्त्वों का ह्रïास होता जा रहा है। आज मीडिया और सत्ता के बीच हेलमेल के संबंध ही अधिक विकसित होते जा रहे हैं। मीडिया संगठनों के स्वामित्व, उनके मालिकों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं, एक पत्रकार के अपने संकीर्ण हित जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं तो सत्ता और मीडिया के इन करीबी नकारात्मक संबंधों को उजागर करते हैं। यहां सवाल सत्ता और मीडिया के संबंधों को नकारने का नहीं है बल्कि किसी भी लोकतंत्र में इन संबंधों का होना पहली शर्त है। सवाल इन संबंधों के नकारात्मक स्वरूप का है। इतना ही नहीं इन नकारात्मक संबंधों को बाकायदा कानूनी और संस्थागत रूप दे दिया गया है।

इस तरह के अनेक रुझान समकालीन पत्रकारिता में देखे जा सकते हैं। पत्रकारिता पर इस तरह के रुझानों से ‘सरकारी सूत्र’ (व्यापक रूप से सत्ता सूत्र) हावी होते चले जाते हैं। सरकारी सूत्र निस्संदेह समाचारों के सबसे अहम सूत्र हैं लेकिन इनसे मिलने वाली हर जानकारी का पत्रकारिता के मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन जरूरी है।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वैचारिक संदेश

समाचारों के माध्यम से संदेश दो तरह से प्रेषित किए जाते हैं। पहली श्रेणी के संदेश तो वे होते हैं जो ऊपरी तौर पर समाचार पढऩे या देखने से ही सामने आ जाते हैं। लेकिन समाचारों में अनेक ऐसे निहित संदेश होते हैं जिनका अर्थ समाचार के वैज्ञानिक विश्लेषण से ही निकाला जा सकता है। प्रच्छन्न रूप से समाचार जो संदेश देते हैं, उन्हीं में विचारों का तत्त्व अहम होता है तथा वस्तुपरकता और तथ्यात्मकता के सिद्धांत का संबंध समाचार के प्रत्यक्ष रूप से ज्यादा है।

पत्रकारिता की पाठ्यपुस्तकों में यह बताया जाता है कि हर समाचार में ‘कौन’, ‘क्या’, ‘कब’, ‘कहां’, ‘क्यों,’ और ‘कैसे’- का उत्तर होना आवश्यक है तभी ही समाचार पूर्ण हो पाता है। जब कभी किसी समाचार में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का उत्तर दिया जाता है तो तथ्यों के विश्लेषण और व्याख्या की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पहले चार प्रश्नों का उत्तर तैयार करने की समाचार उत्पादन की प्रक्रिया में एक खास तरह के तथ्यों के चयन से इसमें वैचारिक तत्त्वों का प्रवेश हो जाता है और आखिरी दो प्रश्नों के उत्तर से समाचार की वैचारिक स्थिति स्पष्टï रूप से सामने आ जाती है।

यह वैचारिक स्थिति पहले तो उस व्यवस्था से ही निर्धारित हो जाती है जिसमें कोई मीडिया संगठन काम करता है। इसके अलावा मीडिया संगठन के स्वामित्व और पत्रकार की अपनी सोच और दृष्टिïकोण भी समाचार के वस्तुविषय (कंटेंट) को निर्धारित करते हैं। समाचार में छिपे संदेशों और अर्थों को समझने के लिए विषय, इस विषय के चयन की प्रक्रिया, इसकी शब्दावली और प्रस्तुतीकरण का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। इस तरह के विश्लेषण से यह सवाल बार-बार उठता है कि समाचारों के उत्पादन और प्रवाह की प्रक्रिया के हर चरण में घटनाओं की व्याख्या प्रभुत्वकारी फ्रेमवर्क को ही अपने उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में सुदृढ़ करती चली जाती है और हर बदलती स्थिति के साथ इस फ्रेमवर्क में भी परिवर्तन आता रहता है ताकि इसके स्थायित्व पर कोई आंच न आए।

इस तरह लोगों की सोच को प्रभुत्वकारी विचारधारा के मुताबिक ढाला जाता है और इस प्रक्रिया में लोगों की कोई वैकल्पिक सोच विकसित करने की क्षमता का ह्रïास होता चला जाता है। साथ ही वैकल्पिक मीडिया और विचारधारा के पनपने का सामाजिक आधार भी संकुचित होता चला जाता है। इस तरह किसी भी व्यवस्था में काम करने वाला मीडिया अपने स्वभाव से ही यथा स्थितिवादी होता है।

किसी घटना के समाचार बनने की प्रक्रिया को करीब से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि समाचार प्रवाह की पूरी प्रक्रिया एक वैचारिक कार्रवाई है। समाचार अपने उत्पादन प्रक्रिया और तंत्र से ही निर्धारित होते हैं। इसलिए यह एक ऐसी अंतर्निहित, अनुत्तरित और निरंतर जारी प्रक्रिया है जिससे सूचनाओं के अंबार को पत्रकारीय ढांचे में तरह-तरह की तोड़-मरोड़ के साथ प्रस्तुत किया जाता है जिससे यथार्थ की यथास्थितिवादी आधिकारिक अवधारणा को ही प्रोजेक्ट किया जा सके।

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि हर पत्रकार कोई जानबूझकर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करता है लेकिन उसकी समाचार की अवधारणाएं और मूल्यों की रचना की पूरी प्रक्रिया उसे यथार्थ को एक खास वैचारिक दृष्टिïकोण से देखने के प्रति अनुकूलित कर देती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस अनुकूलन के कारण एक पत्रकार अपने दृष्टिïकोण के अनुसार घटनाओं की वस्तुपरक रिपोर्टिंग और प्रस्तुतीकरण कर रहा होता है लेकिन अपने अंतिम निष्कर्ष में वह समाज के एक विशेष वर्ग के हितों और मूल्यों की ही पूर्ति कर रहा होता है।

इस आधार पर स्वभावत: यह सवाल उठता है कि क्या समाचारों के प्रस्तुतीकरण के वैचारिक चरित्र को तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक मूलभूत सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन न किए जाएं? निश्चय ही अगर ऐसा होता भी है तो भी नई व्यवस्था की शासक विचारधारा और मूल्यों को ही मीडिया प्रोजेक्ट करेगा और सच्चाई की तलाश यहीं खत्म नहीं हो जाएगी। मीडिया के संदर्भ में यथार्थ और सच्चाई का संबंध व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र से है। मीडिया का वस्तुपरक होना भी उतना ही बड़ा मिथक है कि जितना किसी भी व्यवस्था के संपूर्ण रूप से लोकतांत्रिक होने का मिथक है।

लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति हैं. वे इग्नू और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में जर्नलिज्म के प्रोफेसर रह चुके हैं. एकेडमिक्स में आने  से पहले वे दस वर्ष पत्रकार भी रहे हैं .

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